(विजय शंकर सिंह की कलम से)
केंद्र सरकार के द्वारा पारित किये गए कृषि कानून के विरुद्ध किसानों का बड़ा समूह पिछले 70 दिनों से धरने पर बैठा हुआ है. इन नए कृषि कानूनों पर किये जा रहे
आंदोलन को अगर देखा जाए तो सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है. इसके उलट कृषि मंत्री नरेश तोमर को इस कानून में कहीं कुछ काला नहीं दिख रहा है.
इसकी पड़ताल करते हुए विजय शंकर सिंह ने बिंदुवार लिखकर इस काली सच्चाई को दिखाया है. मसलन-कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में विवाद होने पर, सिविल कोर्ट में वाद
दायर करने के न्यायिक अधिकार से किसानों को वंचित रखना, कानून में काला है. इस संबंध में विवाद होने पर किसान न्यायालय जा ही नहीं सकता
● निजी क्षेत्र की मंडी को टैक्स के दायरे से बाहर रखना, कानून में काला है
● सरकार खुद तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीदे और निजी मंडियों को, अपनी मनमर्जी से खरीदने की अंकुश विहीन छूट दे दे, यह कानून में काला है।
● निजी बाजार या कॉरपोरेट को उपज की मनचाही कीमत तय करने की अनियंत्रित छूट देना, कानून में काला है।
● किसी को भी जिसके पास पैन कार्ड हो उसे किसानों से फसल खरीदने की छूट देना और उसे ऐसा करने के लिये किसी कानून में न बांधना, कानून में काला है।
● किसी भी व्यक्ति, कम्पनी, कॉरपोरेट को, असीमित मात्रा मे, असीमित समय तक के लिये जमाखोरी कर के बाजार में मूल्यों की बाजीगरी करने की खुली छूट देना, यह कानून में काला है।
● जमाखोरी के अपराध को वैध बनाना, कानून में काला है
● जब 5 जून को पूरे देश मे लॉक डाउन लगा था और तब आपात परिस्थितियों के लिये प्राविधित, संवैधानिक प्राविधान, अध्यादेश का दुरुपयोग करके
यह तीनों कानून, बना देना, यह सरकार की नीयत के कालापन को बताता है औऱ यह कानून में काला है.
● 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में हंगामे के बीच कानून को, मतविभाजन की मांग के बावजूद, उपसभापति द्वारा, केवल ध्वनिमत से पास करा देना, यह कानून में काला है.