बाबा, बवाल और हमारा देश


BYनरेन्द्र चौहान


हमारे देश ने हाल ही में आजादी के सात दशक पूरे किए हैं। अभी आजादी की 71वीं वर्षगांठ की खुमारी टूटी नहीं थी कि हमारा देश एक बाबा व उसके सम्राज्य के आगे अपने लोकतांत्रिक वजूद को बचाय रखने के लिए जूझता नजर आ रहा है। ये कैसी परिस्थिति है? एक व्यक्ति दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की न्याय व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। जब टीवी पर बाबा के समर्थकों की देश को मिटा देने की बातें सुनी तो देश के आजाद होने की अपनी सोच पर ही शक होने लगा।

आखिर 71 सालों की इस आजादी के मायने क्या हैं? क्या हम मानसिक, आध्यत्मिक व राजनीतिक रूप से आजाद हैं? अगर हां तो देश में आध्यात्मिक बाबाओं के साथ जुडने वाली लाखों लोगों की भीड को क्या समझा जाए। नेताओं की रैलियों में जुटने वाली लाखों लोगों की भीड क्या है?

राजनीतिज्ञों द्वारा बनाए जाने वाले माहौल व हवा से प्रभावित होकर वोट डालने वाले मतदाता क्या सही मायने में आजाद हैं? क्या इस देश का वह नागिरक जिसका मत लोकतंत्र की नींव को मजबूत करता है, वह मानसिक, बौद्धिक व वैचारिक स्तर पर आजाद है?

देश ने अंग्रेजों की गुलामी की जांजीरों को जरूर तोडा है लेकिन ऐसा लगता है कि इस देश का नागरिक आज भी मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक व राजनैतिक स्तर पर अपनी वैचारिक व सैद्धांतिक आजादी से अनभिज्ञ है या फिर व्यक्तिगत तौर पर अपनी सोच व विचार से परिपक्व नहीं है।

शायद यही वजह है कि वह कभी बाबाओं के अंध भक्त बन अपने राष्ट्र तक को मिटाने तक के लिए तैयार हो जाते हैं या फिर राजनीति में अनैतिक व नैतिक का फर्क किए बिना किसी भी राजनैतिक दल अथवा नेता के लिए अपनी लायलटी साबित करने पर अड जाते हैं। कारण जो भी हो लेकिन यह मानसिक व बौद्धिक गुलामी की वह स्थिति है जिसका लाभ उठा कर इस देश में कभी भी कोई मसीहा बन सकता है।

लाखों लोगों को अपने विचारों व आडंबर से प्रभावित कर अपने अनुयायी या भक्त बनाने में सफल होने वाले इन लोगों के पास लाखों मतों की ताकत आ जाती है। जिसका लाभ उठाने के लिए राजनेता इनको पोषित करते हैं और इनके दरबारों में हाजिरी भरते हैं। परिणामस्वरूप सरकारी तंत्र के लिए इनकी ताकत चुनौती बन जाती है। ठीक इस तरह जिस तरह से आज पंजाब में हो गई है।

अब देखना यह है कि अब तक कई बाबाओं व धर्म गुरूओं की वजह से कई बार जख्मी हो चुके लोकतंत्र को यह बवाल कितना बडा आघात पंहुचाता है। यह भी देखना होगा कि इन बाबाओं को सैंकडों बीघा जमीन पर अपनी रियासतें, करोडों अरबों की संपत्ति इकट्ठा करने की आजादी देने वाले कानूनों व नियमों में सियासतदान संशोधन करने का साहस जुटा पाते हैं या फिर अब भी वोट की राजनीति के लिए इनके आगे पीछे दंढवत होते रहेगें।

इन पर शिंकजा कसा जाना लाजमी हो गया है जिससे भविष्य में कोई भी स्वयंभू बाबा व धर्मगुरू देश की अस्मिता के साथ खिलवाड करने या लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देने का साहस न जुटा सके।

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।

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