बिलखते बिस्त्राधीन दिव्यांग और 50 हजार परिवार


BYसुशील भीमटा


मेरी आवाज सुनों दिव्यांग के लिए विकल्प चुनों।
विकलांग को दिव्यांग नाम से पूकारा जाना काफी अधूरा सा लगता है जब तक उन्हें उस हिसाब से सुविधाएं नहीं दी जाती। जैसे-पेंशन जो सिर्फ 1300 रुपये मासिक दी जाती है क्या इससे उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण या उपचार सम्भय है?

आयकर लगाया जाना, क्या दिव्यांग ऐशो आराम की ज़िंदगी जीनें लायक होता है? जो उसकी जमा पूंजी पर आयकर लगाया जाता है ये माप-दंड गलत है उनके लिए आयकर माफ़ होना चाहिए?

आधारकार्ड नहीं बनाएंगे अभी तक जो चलने फिरने में असमर्थ बुजुर्ग और दिव्यांग हैं और हर जगह आधार कार्ड जरूरी होने के आदेश दे दिए गए हैं क्यों? ये कैसा अँधा कानून है कैसी सोच है?

दिव्यांग माता-पिता के बच्चों की शिक्षा और भरण -पोषण, जीविका के लिए कोई कानून नहीं क्यों? विकलांग को दिव्यांग कहलाने मात्र से जीवन नहीं चलता, पेट की आग खाना मांगती है और जिस घर का मुखिया अपाहिज पड़ा हो उस घर के बच्चे कैसे तरसते हैं कभी सोचो जरा तो इस देश में इंसाफ कब होगा?

क्या 1300 रूपये मासिक पेंशन से परिवार पल सकता है? कानून ऐसा क्यों है? देश के सत्ताधारी नीतियां कैसे बनातें हैं?

जीनें का अधिकार किसको है सिर्फ उन्हें ही जो चल फिर सकते हैं यहाँ उन्हें भी जो जीने के लिए संघर्ष करतें हैं?
प्रधानमंत्री महोदय गौर कीजिए अपने वो गुरबत में गुजारे दिन और फिर नीति निर्माण कीजिए की आपसे भी गुरबत में और लाचारी में ढाई लाख से ज्यादा दिव्यांग जीते हैं जिनमें से लगभग पचास हजार से भी ज्यादा बिस्त्राधीन हैं। क्या उनकी पेंशन कम से कम तीन से चार हजार मासिक नहीं  होनी चाहिए?

क्या उनको वृद्धावस्था और विधवा पेंशन से अलग नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए?

एक और पहलू पर केन्द्र व राज्य सरकारों से व माननीय न्यायलय से गुजारिश करना चाहूंगा कि किसी दुर्घटना से दिव्यांग हुए व्यक्ति के मुकदमें न्यायलय में जो सालों तक चलते रहते हैं कई बार तो उस व्यक्ति की मृत्यु तक हो जाती है तब भी मुकदमें का फैंसला नहीं हो पाता और वो दिव्यांग धन के आभाव में अपना इलाज तक नहीं करवा पाते और तड़प-तड़प कर दम तोड़ देते हैं।

बिस्त्राधीन दिव्यांगो के परिजनों की मजबूरी तो ये भी रहती है कि वो उसकी देख-रेख की वजह से आजीविका कमानें में भी असमर्थ रहते हैं।

मैं एक भारतीय नागरिक होने के नाते माननीय न्यायलय और भारत सरकार से निवेदन करना चाहूंगा कि ऐसे विवश दिव्यागों के मुकदमों को निपटाने के लिए एक समय सीमा तह की जानी चाहिए और प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई की जानी चाहिए।

होता ये है कि बीमा कम्पनियां वकीलों के माध्यम से तारीख पे तारीख लेती रहती हैं और वो दिव्यांग और उसका परिवार तड़प तड़प कर जीते हैं या दम तोड़ देते हैं। जब तक फैसला होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। बहुत सी राशि आज भी न्यायलय में यूँ ही पड़ी है जिसका कोई वारिस ही नहीं रहा या नाबालिक है जो इस बात से अनभिज्ञ है।

मैं समस्त दिव्यांगों खासकर उन दिव्यांगों की ओर से जो बिस्त्राधीन हैं और जिनके परिवार का मुखिया बिस्त्राधीन है भारत सरकार से विनम्र निवेदन करना चाहूंगा कि ऐसे दिव्यांगों को अलग श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उनकी मासिक पेंशन को कम से कम तीन से चार हजार तक किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे दिव्यांगों कि देखभाल में परिवार का एक और दूसरा सदस्य भी व्यस्त रहता है और जीविका कमानें में असमर्थ होता है।

दूसरा पहलू दुर्घटना में दिव्यांग हुए शख्स के क्षतिपूर्ति वाले मुकदमों का एक दो वर्ष के भीतर ही निपटारा कर दिया जाना चाहिए ताकि आर्थिक तंगी की वजह से वो और उसका परिवार दयनीय स्थिति पर ना आ जाये और वो भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर आजीविका कमानें योग्य बना सके।

तीसरी और अहम समस्या यह है कि बीमा कम्पनी से बिस्त्राधीन दिव्यांगों को मिलने वाली क्षतिपूर्ति राशि पर बैंक से मिलने वाले ब्याज पर आयकर ना वसूला जाये क्योंकि उनकी आय का एक मात्र साधन बैंकों से मिलनें वाला ब्याज ही है कोई अन्य कार्य करना उनके लिए नामुमकिन है। जिन परिवारों का मुख्या बिस्त्राधीन दिव्यांग है उन्हें आयकर से मुक्त कर दिया जाना चाहिए या आयकर का स्लैब उनके लिए चार-पांच लाख कर दिया जाना चाहिये। ऐसा इसलिए निवेदन कर रहा हूं कि आज ऐसे दिव्यांगों को रोज physiotherphy की आवश्यकता पड़ती है और घर पर physiotherphy करवानी ही या किसी physiotherphy center में जाना है तो प्रीत दिन तीन से चार सौ रूपये खर्च आता है और मासिक खर्च 9 से 12 हजार तक होता है और बाकी दवाइयां घर खर्च, बच्चे की पढ़ाई आदि अलग से।

मैं खुद 11 सालों से इस दौर से ग़ुजर रहा हूँ तभी इस विशवास से ऐसा लिख पर रहा हूं। मैं खुद बिस्त्राधीन हूँ। यानि 35 से 40 हजार हर महीनें का इलाज समेत खर्च आता है और मैं खुद इस खर्च की धन के आभाव में नहीं कर पाता।

बिना ईलाज के शरीर साथ छोड़ता जाता है यही दिव्यांगता की बेबसी है। भारत सरकार, राज्य सरकारों एवं भारतीय माननीय न्यायलयों से विनम्र निवदेन करना चाहूँगा की मेरी इस गुजारिश पर अम्ल करनें का अवश्य प्रयास करें कृतार्थ होगा।

बिस्त्राधीन दिव्यांग सिर्फ 50 हजार के लगभग हैं। ये नियम सम्भव है मान्यवर कृपा कीजिये 50 हजार परिवार ज़िन्दगी की जंग लड रहे हैं।

न्यायलय में मुनाफा कमाने वाली बीमा कंपनियों को तारीख पे तारीख ना दी जाए एक समय सीमा तय की जाए। इनके तो मुनाफे में थोड़ी कमी होगी मगर इस तरह मुकदमों की सुनवाई में देर होती रही तो हजारों परिवार सिसक-सिसक कर दम तोड़ देंगे।
धन्यवाद!

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।

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