BY- रवि भटनागर
पिछला चुनाव, खुल कर भृष्टाचार पर ही लड़ा गया। भृष्टाचार मुक्त भारत के वादों के साथ, अच्छे दिनों के सपने भी दिखाए गये। सबके साथ, सबका सामूहिक विकास भी होना था। ऐसे ही, काले धन को भी लाया जाना था, जो सबको, पन्द्रह-पन्द्रह लाख का हकदार बना देता।
नाकामियाँ, हमें हरकती बना देती हैं। ‘जब कुछ न बन सका तो, तमाशा बना दिया ‘ वाली तर्ज़ पर, तमाशा ही तो चल रहा है। सरकार और विपक्ष, दोनों ही, एक दूसरे की नाकामियों पर कव्वालियाँ सी गा रहे हैं।
अब, बोफोर्स और वी वी आई पी चौपर से होती हुई, सुई राफेल की तरफ घूम चुकी है। कोयला, टू जी स्पेक्ट्रम तो बहुत छोटे लगने लग गये हैं। फिर, मध्यप्रदेश का ‘ई’ टैंडर घोटाला ? रोज़गार घोटाले भी ख़ूब गरम हैं, और कई राज्यों में छाये हुये हैं।
इधर, काफी समय से, पूरी की पूरी राजनीति ही धर्म, आस्था, और जातियों के नाम पर , रिझाने, मनाने और पटाने के नये नये प्रयोगों व गणितों तक सिमट चुकी है। पुलवामा के आतंकी हादसे, और सैन्य कार्यवाहियों ने जनता का ध्यान, मुख्य मुद्दों से, काफी हद तक हटा दिया। इससे, सरकार को तो राहत हुई पर विपक्ष को हरारत भी हो गई है।
अवाम, जिनमें पिच्यासी प्रतिशत से अधिक सर्वहारा, और अव्वल दर्जे की ग़ुरबती ही हैं, बडे़ ही निर्विकार भाव और थकी-सी आँखों से, इन बेमानी दंगलों के खत्म होने की राह देख रहे हैं।
राजनीतिक सोच के दिवालिये पन की इन्तिहा ही है कि, एक कहता है, मैं चौकीदार हूँ, दूसरा कहने लगा कि चौकीदार चोर है। और इस पर, फिर पलट वार होता है, और फिर से, देश के ही वरिष्ठ नेता, अपने आपको पुन: चौकीदार स्थापित कर एक ट्वीट कर देते हैं और समर्थकों की भीड़, सब अपने आप को भी चौकीदार कहने लग गई, फेसबुक, वाट्सएप, ट्वीट्स में यही देखा गया। सभी को बधाई।
इस अंधी चाल में बडे़, वरिष्ठ, तजुर्बेकार और बड़े-बड़े पदों को सुशोभित करने वाले नेता भी, अपनी राजनीतिक सक्षमता और वरीयता ताक पर रख कर स्वंय को चौकीदार कहलवाने की होड़ लगा बैठे। भारतीय राजनीतिक पटल के सुनहरे इतिहास में, कभी ऐसा अनूठा व अजूबा अध्याय भी लिखा जायेगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी।
किसी नेतृत्व के प्रति इतनी निष्ठा या असहायता का ऐसा उदाहरण भी अद्वितीय है। सभी वरिष्ठ नेताओं, मंत्रियों ने अपने पदों की ज़िम्मेदारियों और गरिमा को ललकारा है या चौकीदारी के ओहदे के समकक्ष बनाया है, इसका जवाब, तो वे ख़ुद भी नहीं दे पायेंगे।
चुनाव है, तो पक्ष और विपक्ष, सीधी बात करे। हल्की नाटकीयता कर, अवाम की असहायता का बेहूदा मज़ाक न बनायें। चुनावों को मुख्य मुद्दों और उपलब्धियों या कमियों पर ही केंद्रित रखे। मतदाता का ही, बहुत कुछ लुटता रहा है। जब वह चौकीदारी पर आ गया तो, सभी को चौंका देगा।
रवि भटनागर