लोकसभा चुनाव: प्यार, युद्ध में क्या क्या जायज़: रवि भटनागर


BY- THE FIRE TEAM


यह कौन तय करेगा कि देश में चुनाव हो रहे हैं या युद्ध। मानें या न मानें, यह चुनाव युद्ध से कम लग ही नहीं रहे।

तमाम किस्मों की पैंतरेबाज़ियाँ, नाटकीयता और ज़बानी अस्त्रों, बृम्हास्त्रों की मार बस प्राण ही तो नहीं ले रहीं।

देश के मुख्य नेताओं और उनके परिवारों पर कथित भ्रष्टाचार-व्यवहारों के सीधे शब्द बाणों के प्रहार, गहरे ज़ख्म कर रहे हैं।

ऐसे सभी करतब उनके चरित्रों को धराशायी तो कर चुके हैं, पर ये चुनावों में कितने कामयाब होंगे, यह चुनाव के नतीजे ही बतायेंगे।

इन सभी प्रचारी कुकृत्यों ने मुख्य चुनावी मुद्दों को दर किनार कर, चुनावों का धरातल ही बदल डाला है।

जिन मूल्यों पर हमारे देश के पेरोकार, विद्वान और हितैशी घमंड करते रहे हैं, उन पर इस देश के जन सेवक, वास्तव मेंं स्वयं खरे उतरने के बजाय, उनकी हँसी उड़ाते दिखाई दे रहे हैं।

यह विडंबना ही है कि आज भी देश के अधिकांश मतदाता अपना मत देने के लिये केवल चुनाव चिन्हों को देख कर ही बटन दबा देते हैं।

ये सब अपने मत का प्रयोग केवल बहकावों या दबाव में आकर ही करते हैं। दबाव उनकी जात बिरादरी के मुखिया, पंच, सरपंच, धर्मगुरु, या दबंगों का भी हो सकता है।

धन का इस्तेमाल तो व्यापक ढंग से किया जाता है, ऐसी मान्यता है।

इन चुनावों में तो अच्छे, बड़े नेताओ ने भी अपनी अभद्र भाषाओं और हल्की टिप्पड़ियों से असभ्यता की सारी हदें पार कर दी हैं।

ये लोग मतदाताओं पर अपना अधिपत्य जमाने की कोशिशों में एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये भद्दी टिप्पणियां करने से कोई परहेज नहीं कर रहे।

दलों के नेतागण, कार्यकर्ता और उनके समर्थक ऐसा आभास दे रहे हैं जैसे ये इस देश का आखिरी चुनावी युद्ध है।

चुनाव आयोग अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने में प्रारंभ से ही अक्षम लग रहा था। उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से कुछ सख़्त कदम उठे हैं, पर पर्याप्त नहीं हैं।

अब समय आ गया है कि प्रत्याशियों की न्यूनतम योग्यतायें और उनकी सामाजिक विश्वसनीयता इत्यादि निर्धारित हों। दल बदलने वालों के लिए भी प्रत्याशी बनने की न्यूनतम समय सीमा होनी आवश्यक है।

अरबों रुपये के ख़र्च के बाद चुनाव आयोग अपनी ज़िम्मेदारियों को ‘ईवीएम’ के भरोसे निपटा कर विश्व के सब से बड़े चुनाव का मुकुट पहन कर हर्ष मना लेगा।

इधर हमारा समझदार मतदाता, पाँच वर्षो के लिये दोबारा से बेहतरी की कामना के स्वप्न देखता रह जायेगा।

क्या कभी ऐसा हो सकता है कि भविष्य में सरकार और विपक्ष में केवल अच्छी छवि के शिक्षित व्यक्ति ही चुने जा सकें?

उनके चरित्र पर कोई दाग़ न हो; उन्हें उनकी काबलियत के आधार पर चुना गया हो; उनकी व्यक्तिगत जाति, धर्म, या कोई और आधार मतदाता को प्रभावित न कर पाये ?

क्या हम ऐसे स्वप्न देखने की कल्पना भी कर सकते हैं?


रवि भटनागर गुरुग्राम

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