BY–THE FIRE TEAM
उच्चतम न्यायालय ने कोरेगांव-भीमा हिंसा प्रकरण के सिलसिले में पांच कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के मामले में हस्तक्षेप करने से शुक्रवार को इंकार करने के साथ ही इन गिरफ्तारियों की जांच के लिये विशेष जांच दल गठित करने का आग्रह भी ठुकरा दिया। महाराष्ट्र पुलिस ने इन कार्यकर्ताओं को पिछले महीने गिरफ्तार किया था परंतु शीर्ष अदालत के अंतरिम आदेश पर उन्हें घरों में नजरबंद रखा गया था।
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 2:1 के बहुमत के फैसले से इन कार्यकर्ताओं की तत्काल रिहाई के लिये इतिहासकार रोमिला थापर और अन्य की याचिकायें ठुकरा दीं।
बहुमत के फैसले में न्यायालय ने कहा कि आरोपी इस बात का चयन नहीं कर सकते कि मामले की जांच किस एजेन्सी को करनी चाहिए और यह सिर्फ राजनीतिक दृष्टिकोण में भिन्नता का मामला नहीं है।
न्यायमूर्ति खानविलकर ने अपनी और प्रधान न्यायधीश दीपक मिश्रा की ओर से फैसला सुनाया जबकि न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने कहा कि वह दो न्यायाधीशों के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं।
न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने अपने असहमति वाले फैसले में कहा कि इन पांच कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी सत्ता द्वारा असहमति की आवाज दबाने का प्रयास है और यह अहसमति सजीव लोकतंत्र का प्रतीक है।
गिरफ्तार किये गये पांच कार्यकर्ता वरवरा राव, अरूण फरेरा, वर्नेन गोन्साल्विज, सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा शीर्ष अदालत के आदेश पर 29 अगस्त से अपने-अपने घरों में नजरबंद हैं।
महाराष्ट्र पुलिस ने पिछले साल 31 दिसबंर को ‘‘एलगार परिषद’’ के आयोजन के बाद कोरेगांव-भीमा गांव में हुयी हिंसा के मामले में दर्ज प्राथमिकी के सिलसिले में इन पांच कार्यकर्ताओं को 28 अगस्त को गिरफ्तार किया था।
बहुमत के निर्णय में न्यायालय ने कहा कि इन कार्यकर्ताओं की घरों में नजरबंदी का संरक्षण चार सप्ताह और लागू रहेगा ताकि आरोपी उचित कानूनी मंचों से उचित कानूनी राहत का अनुरोध कर सकें।
न्यायालय ने कहा कि ये गिरफ्तारियां असहमति वाली गतिविधियों की वजह से नहीं हुयीं बल्कि पहली नजर में प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) संगठन से उनके संपर्क दर्शाने वाली सामग्री है।
न्यायमूर्ति खानविलकर ने इस मामले में और कोई टिप्पणी करने से गुरेज करते हुये कहा कि इससे आरोपी और अभियोजन का मामला प्रभावित हो सकता है।
न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ का कहना था कि यदि समुचित जांच के बगैर ही पांच कार्यकर्ताओं पर जुल्म होने दिया गया तो संविधान में प्रदत्त स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं जायेगा। उन्होंने कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिये याचिका को सही ठहराते हुये महाराष्ट्र पुलिस को प्रेस कांफ्रेस करने और उसमें चिट्ठियां वितरित करने के लिये आड़े हाथ लिया।
उन्होंने कहा कि कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज के कथित पत्र टीवी चैनलों पर दिखाये गये। पुलिस द्वारा जांच के विवरण मीडिया को चुन-चुन कर देना उसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है।
(पीटीआई-भाषा)