ब्लॉग: ‘कैसे कहूं- मेरे ख्वाबों की शहज़ादी, मैं हूं अकबर प्रयागराजी’

BY-THE FIRE TEAM

कहा जाता है महामंत्री ने आर्यावर्त के राजकेंद्र इंद्रप्रस्थ के राजमहल का पूरा समर्थन प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद का शुद्धिकरण किया.

इस बात को मैं यूं भी कह सकता था कि पिछले हफ़्ते कराची में सरहद पार से जो ख़बरें आईं उनमें से एक ये भी थी कि भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज रखने का एलान किया है. कहा जाता है मुख्यमंत्री ने ये निर्णय दिल्ली में प्रधानमंत्री भवन को बताकर लिया.

पर इस तरह सीधे-सीधे ये ख़बर बताने में खाक मज़ा आता.

कार्टून

नाम बदलो, जनता करेगी वाह-वाह

अब वो ज़माना तो रहा नहीं कि नए शहर बनाकर नए नाम रखो और नया इतिहास रचाओ. ये काम तो मुग़लों और फिर अंग्रेज़ों के बाद मानो बंद ही हो गया.

इससे कहीं आसान काम अब ये रह गया है कि किसी भी पुराने शहर, अस्पताल, यूनिवर्सिटी, मार्ग का नाम बदल दो और ये फर्ज़ कर लो कि जनता उसे भी सरकार का एक और निष्पादन समझकर वाह-वाह करने लगेगी.

जैसे पाकिस्तान में लायलपुर, कैंबलपुर, फोर्टसंडमन, मोंटगोमरी अंग्रेज़ों ने बनाए. पाकिस्तान बनने के बाद बस इतना हुआ कि उनका नाम फ़ैसलाबाद, अटक, ज़ोब और साहिवाल हो गया.

इसी तरह भारत में मुग़लों का बनाया औरंगाबाद संभाजी नगर, इलाहाबाद प्रयागराज, अंग्रेज़ों का कलकत्ता कोलकाता, बंबई मुंबई और मद्रास चेन्नई हो गया.

आपने सुना तो होगा हलवाई की दुकान पर दादा जी की फातिहा. आज़ादी के बाद भारत और पाकिस्तान में बस एक-एक नया शहर बसा. चंडीगढ़ और इस्लामाबाद. और वो भी एक ही यूनानी आर्किटेक्ट ने डिज़ाइन किया.

सामने है बड़ी दिक्कत

अब मेरे लिए बहुत प्रॉब्लम हो गई है कि मेरे ख्वाबों की शहज़ादी मैं हूं अकबर इलाहाबादी को कैसे कहूं कि मेरे ख्वाबों की शहज़ादी मैं हूं अकबर प्रयागराजी.

क्या खाइके पान वाराणसी वाला खुल जाए बंद अक्ल का ताला ठीक रहेगा ? और फिर सुबहे बनारस का क्या करूं?

ग़ालिब का ये शेर कैसा लगेगा कि कोलकते का तूने ज़िक्र किया ए हमनशीं, इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाय हाय.

काम बदलो ना!

मगर क्या नाम बदलने से नाम खुरच भी जाते हैं? आज भी जब कोई अस्सी वर्ष का सरदार कहीं मिलता है तो पूछता है, मेरा लायलपुर कैसा है?

मैं जब उसे कहता हूं कि लायलपुर हुण फ़ैसलाबाद हो गया है तो सरदार कहता है फ़ैसलाबाद त्वाणू मुबारक़ साड्डा तो लायलपुर ही है.

या जब मैं कराची में किसी रिक्शेवाले से पूछता हूं कि ज़ैबुनिसा स्ट्रीट चलोगे तो वो पूछता है कि ये कहां है साहब? जब मैं उसे समझाता हूं कि ये सदर में है तो वो कहता है साहब सीधा-सीधा उर्दू में बोलो न कि अल्फिनस्टन स्ट्रीट जाना है.

हालांकि अल्फिनस्टन स्ट्रीट का नाम ज़ैबुनिसा स्ट्रीट हुए 40 वर्ष से अधिक हो चले हैं. तो भैया नाम काहे को बदलते हो? बदलना है तो काम बदलो ना!

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