BY–THE FIRE TEAM
दुनिया के दूसरे हिस्सों के साथ-साथ भारत में फ़ेक न्यूज़ का प्रसार कितनी तेज़ी से और किस तरह बढ़ रहा है यह विचारणीय है. लेकिन ख़बरों की दुनिया में फ़ेक न्यूज़ कोई अकेली बीमारी नहीं है.
एक ऐसी ही बीमारी है पेड न्यूज़, जिसने मीडिया को अपनी चपेट में ले रखा है. कई बार दोनों का रूप एक भी हो सकता है और कई बार अलग अलग भी.
वैसे पेड न्यूज़ की बीमारी को आप थोड़ा गंभीर इसलिए मान लें क्योंकि इसमें बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों से लेकर दूर दराज़ के क़स्बाई मीडिया घराने शामिल हैं.
पेड न्यूज़, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है वैसी ख़बर जिसके लिए किसी ने भुगतान किया हो. ऐसी ख़बरों की तादाद चुनावी दिनों में बढ़ जाती है और छत्तीसगढ़ में पहले चरण के मतदान के साथ ही देश के पांच राज्यों के चुनावी घमासान की शुरुआत हो चुकी है.
ख़बरों को कैसे प्रभावित करते हैं चुनाव ?
छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में चुनाव होने जा रहे हैं. इन राज्यों में चुनाव के साथ देश भर में एक तरह से 2019 के आम चुनाव की मुनादी हो जाएगी.
चुनावों का ना केवल सरकारों पर असर होता है बल्कि ख़बरों की दुनिया पर भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है. समाचार माध्यमों में चुनावी ख़बर प्रमुखता से नज़र आने लगती हैं.
नेताओं के चुनावी दौरों और चुनावी वादों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें, बैनर और टीवी चैनलों पर लाइव डिस्कशन की तादाद बढ़ जाती है. इस दौरान नेता और राजनीतिक दल अपने अपने हक़ में हवा बनाने के लिए अपने पक्ष की चीज़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं.
इसके लिए मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स में ख़बरों के बीच पेड न्यूज़ का घालमेल इस तरह होता है कि वो एकपक्षीय समाचार या विश्लेषण होते हैं, जो आम मतदाताओं के नज़रिये को प्रभावित करते हैं.
ये खेल किस तरह होता है, इसका अंदाज़ा चुनाव आयोग के आंकड़ों से होता है. बीते चार साल में 17 राज्यों में हुए चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ की 1400 से ज़्यादा शिकायतें सामने आई हैं.
बीते पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ की 523, गुजरात चुनाव में 414 और हिमाचल चुनाव में 104 शिकायतें सामने आईं थीं. इस साल कर्नाटक में हुए चुनाव में पेड न्यूज़ की 93 शिकायतें दर्ज की गईं.
चुनाव आयोग रख रहा है नज़र :
इन शिकायतों से स्पष्ट है कि पेड न्यूज़ के मामले दर्ज हो रहे हैं. यही वजह है कि चुनाव आयोग ने चुनावी ख़र्चे के लिए निगरानी समिति का गठन किया है जो उम्मीदवारों के ख़र्च पर नज़र रखती है.
छत्तीसगढ़ में कुछ अख़बारों और ख़बरिया चैनलों में संपादकीय ज़िम्मेदारी निभा चुके दिवाकर मुक्तिबोध कहते हैं, “पेड न्यूज़ का मामला नया तो नहीं है, लेकिन अब इसका रूप व्यापक हो चुका है.
हर अख़बार और चैनल चुनाव को पैसे बनाने के मौक़े के तौर पर देखते हैं, लिहाज़ा उनका उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों से एक तरह का अघोषित समझौता होता है और पक्ष में ख़बरों के ज़रिए माहौल तैयार कराया जाता है.”
चुनाव आयोग मध्य प्रदेश चुनावों को लेकर अतिरिक्त सर्तकता भी बरत रहा है, क्योंकि 2013 के विधानसभा चुनाव में इस राज्य से पेड न्यूज़ की 165 शिकायतें सामने आईं थीं.
मध्य प्रदेश के इंदौर में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार समीर ख़ान बताते हैं, “पेड न्यूज़ का तौर तरीक़ा बदलता रहा है, एक नया तरीक़ा तो ये भी है कि भले आप हमारे पक्ष में कुछ नहीं छापो,
लेकिन हमारे ख़िलाफ़ वाली ख़बर तो बिल्कुल मत छापो. मतलब आप कुछ नहीं भी छापेंगे तो भी आपको पैसे मिल सकते हैं और ये ख़ूब हो रहा है.”
भारत में पेड न्यूज़ की स्थिति को लेकर भारतीय प्रेस काउंसिल की एक सब-कमेटी की ओर से परंजॉय गुहा ठाकुराता और के श्रीनिवास रेड्डी ने मिलकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी.
लंबे समय तक उसे सार्वजनिक नहीं किया गया. फिर 2011 में तत्कालीन केंद्रीय सूचना आयुक्त के आदेश के बाद इस रिपोर्ट को जारी किया गया.
ठाकुरता अपनी उस रिपोर्ट के बारे में बतात हमने अपनी रिपोर्ट में हर अख़बार का नाम लिखा है, हर मामले की जानकारी दी है. उनके प्रतिनिधियों के जवाब भी लिखे हैं.
लेकिन प्रेस काउंसिल ने दस महीने तक उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं होने दिया.” ठाकुरता ये भी मानते हैं कि उन लोगों ने क़रीब आठ नौ साल पहले जो अध्ययन किया था,
वह आज भी उसी रूप में मौजूं बना हुआ है क्योंकि पेड न्यूज़ के लिए मोटे तौर पर वही तौर तरीक़े अपनाए जा रहे हैं.
हालांकि समय के साथ पेड न्यूज़ के तौर तरीक़ों को ज़्यादा फाइन ट्यून किया जा रहा है. इसका दायरा अख़बारों में विज्ञापन और ख़बर छपवाने से आगे बढ़ रहा है. विपक्षी उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों की छवि धूमिल की जा रही है.
कितनी गंभीर है पेड न्यूज़ की बीमारी ?
बीते दिनों कोबरा पोस्ट के स्टिंग में भी ये दावा किया गया कि कुछ मीडिया संस्थान पैसों की एवज़ में कंटेंट के साथ फेरबदल करने को तैयार दिखते हैं.
प्रभात ख़बर के बिहार संपादक अजेय कुमार कहते हैं, “दरअसल अब पेड न्यूज़ केवल चुनावी मौसम तक सीमित नहीं रह गया है. आए दिन सामान्य ख़बरों में भी इस तरह के मामलों से हमें जूझना होता है.
ये स्थानीय संवाद सूत्र से शुरू होकर हर स्तर तक पहुंचता है.”
दुनिया भर में मूल्यों वाली पत्रकारिता को बढ़ावा देने वाले एथिकल जर्नलिज्म नेटवर्क ने ‘अनटोल्ड स्टोरीज़- हाउ करप्शन एंड कॉन्फ्लिक्ट्स ऑफ़ इंटरेस्ट स्टॉक द न्यूज़रूम’ शीर्षक वाले एक लेख में इस बात पर चिंता ज़ाहिर की है कि-
अगर भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के ताक़तवर समूहों ने अभी ध्यान नहीं दिया तो भारतीय मीडिया में दिख रहा बूम पत्रकारिता और सच्चाई के लिए बेमानी साबित होगी.
दैनिक भास्कर और नई दुनिया अख़बार समूहों में जनरल मैनेजर रहे मनोज त्रिवेदी के मुताबिक, चुनाव के दिनों में अख़बारों में पेड न्यूज़ छपते हैं और इसके लिए राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं.
उन्होंने बताया, “दरअसल उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के पास भी चुनाव में ख़र्च करने के लिए ढेर सारा पैसा होता है, लेकिन चुनाव आयोग की सख़्ती के चलते वे एक सीमा तक ही अपना ख़र्च दिखा सकते हैं.
लिहाज़ा वे भी अख़बार प्रबंधनों से संपर्क साधते हैं और अख़बार भी उम्मीदवार और राजनीतिक दल के हिसाब से पैकेज बना देते हैं.”
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि परंजॉय गुहा ठाकुराता और के श्रीनिवास रेड्डी की जांच पड़ताल में 61 उम्मीदवारों ने इस बात को माना था कि उन्होंने अपने पक्ष में ख़बर छपवाने के लिए पैसे दिए थे.
इतना ही नहीं समय के साथ पेड न्यूज़ का तरीक़ा भी बदल रहा है और अब यह ज्यादा संगठित तौर पर सामने आ रहा है.
वहीं वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई कहते हैं, “चैनल और अख़बार निस्संदेह एक प्रॉडक्ट हो गए हैं, लेकिन प्रॉडक्ट में पेड न्यूज़ की धोखाधड़ी तो नहीं होनी चाहिए.
अगर आप पैसा लेते हैं तो उसे साफ़ और स्पष्ट तौर पर विज्ञापन घोषित करना चाहिए.”
पेड न्यूज़ का बाज़ार कितना बड़ा है, इसका अंदाज़ा मिंट अख़बार में प्रकाशित भारतीय चुनाव आयोग के हवाले से 2013 में लगाए गए एक आकलन से होता है जिसके मुताबिक,
कोई राजनीतिक दल चुनावी दिनों में पार्टी और उम्मीदवारों के लिए जो ख़र्च करता है, उसका क़रीब आधा हिस्सा पेड न्यूज़ के लिए होता है.
चुनाव आयोग के सख़्ती दिखाने का असर बहुत ज़्यादा भले न दिखा हो लेकिन ये संदेश तो जा रहा है कि वह पेड न्यूज़ की शिकायतों को गंभीरता से ले रहा है.
पेड न्यूज़ के चर्चित मामले :
इस मामले में उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता डीपी यादव की पत्नी उमलेश यादव का उदाहरण भारतीय राजनीति का पहला मामला था जब किसी विजयी उम्मीदवार को अयोग्य ठहराया गया.
2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान उमलेश यादव बदायूं के बिसौली विधानसभा से निर्वाचित हुई थीं. राष्ट्रीय परिवर्तन दल की उम्मीदवार उमलेश यादव से चुनाव हारने वाले योगेंद्र कुमार ने प्रेस काउंसिल में उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई.
कुमार ने अपनी शिकायत में बताया था कि दो प्रमुख हिंदी दैनिक- दैनिक जागरण और अमर उजाला- ने मतदान से ठीक एक दिन पहले उमलेश यादव के पक्ष में पेड न्यूज़ प्रकाशित की थी.
हालांकि पेड न्यूज़ की शिकायत पर दोनों अख़बार प्रबंधन का दावा था कि उन्होंने उस ख़बर को विज्ञापन के तौर पर छापा था और ख़बर के साथ ‘विज्ञापन’ (ADVT) भी लिखा हुआ था.
प्रेस काउंसिल ने शिकायत और अख़बार प्रबंधन के जवाब के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जिस तरह के फॉरमैट में ख़बर छपी थी और जिस तरह से ADVT छपा हुआ था.
उससे आम मतदाताओं के मन में भ्रम पैदा होने के आसार बनते हैं. चुनाव एक दिन बाद होने थे और प्रचार पर रोक लग चुकी थी ऐसे में यह न केवल पत्रकारीय मानक के तौर पर ग़लत है बल्कि चुनावी प्रावधानों का भी उल्लंघन है.
पेड न्यूज़ को लेकर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का मामला भी सुर्खियों में रहा था. 2009 के विधानसभा चुनाव में अशोक चव्हाण ने महाराष्ट्र के नांदेड़ के भोकार विधानसभा सीट से जीत हासिल की थी.
उनकी जीत के बाद निर्दलीय उम्मीदवार माधवराव किन्हालकर ने उनके ख़िलाफ़ पेड न्यूज़ की शिकायत की थी. उस वक़्त ‘द हिंदू’ अख़बार के पत्रकार पी साईनाथ ने अशोक चव्हाण के चुनावी ख़र्चे की जानकारी पर लगातार रिपोर्टिंग की थी.
उन्होंने तब ख़बरों में लिखा था कि जिस तरह का कवरेज अशोक चाव्हाण को मिला और उन्होंने जिस तरह का ख़र्च दिखाया है, उसमें तालमेल नहीं दिखता.
जबकि प्रेस काउंसिल की पेड न्यूज़ की जांच करने वाली कमिटी ने पाया था कि सिर्फ़ लोकमत अख़बार में अशोक चव्हाण के पक्ष में 156 पेजों का विज्ञापन छापा गया था.
चुनाव आयोग ने चव्हाण को 20 दिनों के भीतर जवाब देने के लिए ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी किया था.
गौरतलब है कि पेड न्यूज़ के किसी भी मामले को साबित करना बेहद मुश्किल है. इसकी वजह बताते हुए परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, “पेड न्यूज़ में किसी को कोई रसीद नहीं मिलती, चेक से भुगतान नहीं होता है,
इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन नहीं होता. लिहाजा इसे साबित करना मुश्किल होता है. इसमें पैसों का लेन-देन वैध तरीके से होता नहीं है. इसे प्रमाणित करना आसान काम नहीं है. ये काम चुनाव आयोग का है भी नहीं.”