लेकिन क्या हमारी सरकारें कैदियों के इन अधिकारों के प्रति ज़रा भी ध्यान देती हैं? क्या देश की अन्य जेलों में कितने बन्दी संक्रमित हुए, कितनों की मौत हुई, ये आंकड़े कभी दर्ज हो पाएंगे?
पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अपराध की प्रकृति, जेल की सजा और अपराध की गंभीरता के आधार पर पैरोल और जमानत पर लगभग 68 हजार से अधिक कैदियों को रिहा किया गया था, यही बात इस वर्ष भी कही गयी है. भले ही यह निर्णय कुछ हद तक सही रहा है,
लेकिन अधिक उम्र और बीमारी के कारण जेल के वातावरण में जिन बन्दियों को संक्रमण का अधिक खतरा है, क्या न्यायालय को इस प्रकृति को ध्यान में नहीं रखना चाहिए था? यहां पर यह कहना इसलिए जरूरी है कि महाराष्ट्र, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़,
आन्ध्र-उड़िसा, जम्मूकश्मीर, उत्तरपूर्व के राज्यों, पश्चिम बंगाल और दिल्ली आदि अधिकांश राज्यों में बहुत बड़ी संख्या में राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को यूएपीए और राजद्रोह के झूठे आरोपों में जेल में बन्द किया गया है. इनमें से बहुत से बन्दी बुजुर्ग और विभिन्न प्रकार की बीमारियों से ग्रसित कार्यकर्ता हैं.
चुँकि राजद्रोह की सजा तो आजीवन कारावास है तो क्या इसलिए ये बन्दी पैरोल और जमानत के हकदार नहीं माने जायेंगे? क्या इनके सारे अधिकारों को सिर्फ इसलिए ताक पर रख दिया जायेगा कि इन्होंने शासक वर्ग के विचार और नीतियों के विरूद्ध आवाज़ उठाई और इनके ऊपर यूएपीए की संगीन धाराएं लगाई गयी हैं, ये कहां का न्याय है?
जिन बंदियों को सिर्फ राजनीतिक असहमति के कारण विभिन्न प्रकार के फर्जी दस्तावेज बनाकर जेलों में कैद किया गया है क्या आज उनके पक्ष में बोला नहीं जाना चाहिए ? क्या सरकार के कहने भर से उन्हें देशद्रोही मान लिया जाना चाहिए?
क्या हम भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि क्रान्तिकारी शहीदों को भूल सकते हैं जिनको अंग्रेजो़ं की खिलाफत करने पर यही राजद्रोह की धाराएं लगाई गयी थीं? क्या हम वास्तव में जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए वाले लोकतन्त्र में रह रहे हैं?
आज हम इस विषय पर बात करने से कैसे बच सकते हैं? क्या अपने जल-जंगल के लूटेरों, देश को लूटने वाले पूंजीपतियों और उनके दलालों के बारे में चुप लगानी चाहिए? क्या हमें आदिवासियों के हक में खड़े होने वाले 84 साल के फादर स्टैन स्वामी की पैरवी न करनी चाहिए?
बॉम्बे HC ने एक्टिविस्ट स्टेन स्वामी के निजी अस्पताल में ठहरने की अवधि 5 जुलाई तक बढ़ाई – The New Indian Express https://t.co/LQXGFuN7C0
— News Kulwant Vision (@KulwantVision) June 17, 2021
कश्मीरी अवाम के साथ होने वाली ज्यादतियों पर हम आंख मूंद लें? दलितों, वंचितों की आवाज़ उठाने वाले, भीमा कोरेगांव केस में बन्द किये 83 साल के कवि वरवरा राव जिनको कोविड संक्रमण होने के बाद तब सशर्त महज 6 महीने की जमानत दी गयी, जबकि वे अपना होशहवाश खोने लगे थे, के स्वास्थ्य के अधिकार पर बात ना करें.
सुधा भारद्वाज, शोमासेन, गौतम नवलखा और आनन्द तेलतुम्बड़े, जीएन साईंबाबा, हैनी बाबू, प्रशांत राही, वर्नन गोंसलविस जैसे न जाने कितने ही मानवाधिकार कार्यकर्ता, शिक्षक, वकील, लेखक, पत्रकार, नौजवान, महिलाएं जेलों के भीड़ भरे माहौल में ठूंस दिये गये हैं.
इनमें से कितने ही या तो कोराना से संक्रमित हो गये हैं या कि इसकी सम्भावना बनी हुई है. इन हालातों में भी इन्हें जमानत के हक से वंचित किया जाना क्या बन्दियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं है?
क्या हम जेल बन्दियों के अधिकारों को जानते-समझते हुए भी खामोश रहें? हम चुप लगा जायें कि असहमति को व्यक्त करने पर कोई न कोई मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया जायेगा? हम इसलिए न बोलें कि कि हमें ‘पिंजरा तोड़’ की जूझारू लड़कियों की तरह बदनाम करके जेलों में ठूंस दिया जायेगा?
सीएए, एनआरसी कानून का विरोध करने पर जिन महिलाओं, छात्रों, नौजवानों को कैद किया गया है उनके बारे में न सोचें? उत्तरप्रदेश के चौराहों पर पोस्टर लगा दिये जाने के बाद पुलिस-प्रशासन ने जिनको सरेराह बदनाम करने की कोशिश की है क्या उनके नागरिक सम्मान के अधिकार पर बहस न करें?
केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जॉर्नलिस्ट ने सादिक कप्पन नाम के गिरफ्तार पत्रकार को छोड़ने के लिए सीएम योगी को पत्र लिखा है। यूनियन ने कहा कि कप्पन हाथरस में मौजूदा हालात की रिपोर्टिंग के लिए गए थे। साथ ही यूनियन ने यह साफ कर दिया है कि वह यूनियन की दिल्ली यूनिट से जुड़ा है. pic.twitter.com/i3snm0A1gv
— Janchowk (@janchowk) October 6, 2020
क्या हाथरस केस की पड़ताल के लिए जा रहे पत्रकार सादिक कप्पन को जिन स्थितियों में जेल में रखा गया था उसकी पड़ताल नहीं की जानी चाहिए? न्यायालय की धीमी कानूनी प्रक्रिया के कारण झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आसाम, उत्तरप्रदेश, जम्मूकश्मीर आदि राज्यों में गरीबों, मुस्लिमों और आदिवासियों को केस पर केस लगाकर सालों साल जेल में मरने की हद तक रखा जा रहा है.
गरीबी, अभाव और पुलिस के डर से कितने ही परिवार पैरवी नही कर पाते हैं और जेल की चारदीवारी के पीछे कब युवा बुढ़ापे की दहलीज पर कदम रख देते हैं, उनको खुद भी पता नहीं लग पाता। क्या आज इस विषय पर गंभीर विमर्श की ज़रूरत नहीं है?
जेल बंदियों की मिलाई पर जब पूरी तरह रोक लगी हुई है, इन परिस्थितियों में उनकी जो बुनियादी ज़रूरतें हैं इस पर ध्यान दिया जाना आज फौरी ज़रूरत है. न्यायालय द्वारा इस संदर्भ में दिशानिर्देश जारी करने चाहिए. चूँकि न्यायालय और जेल प्रशासन के लिय बंदियों के होने या ना होने का विशेष महत्व नहीं होता है.
इसलिए जेल बंदियों के हालात दिनप्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं. एक या दो बंदियों के लिए नहीं, बल्कि उन सभी राजनीतिक बंदियों के न्यायिक अधिकारों के लिए आज आवाज़ उठाने की ज़रूरत है जो कि राजनीतिक असहमति के कारण यूएपीए की धाराओं और अन्य झूठे मुकदमों में जेलों के भीतर हैं.
जेल बन्दी की परिजन होने का जो दर्द और पीड़ा मेरे भीतर खदबदा रही है, वही दर्द मैं आप सबसे साझा करना चाहती हूँ. मेरे जैसे कई परीजन देश भर की जेलों में बंद अपने लोगों के लिए चिंतित हैं. अत: मेरा सभी इन्साफ पसंद लोगों से आग्रह है कि जेल बंदियों के अधिकारों पर खुलकर चर्चा हो और उनकी रिहाई के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएँ.
अँधेरा कुवां बन गईं जेलों को रोशनी की ज़रूरत है. जेलों बंदियों के स्वास्थ्य स्थितियों पर गौर करके सभी बंदियों का समुचित इलाज हो, इसके लिए जेल प्रशासन की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित होनी चाहिए. उनके साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार को समस्या के बतौर चिन्हित किया जाना चाहिए.
राजनितिक बंदियों को भी पैरोल, जमानत मिलने का अधिकार होना चाहिए. जेल प्रशासन की कार्यप्रणाली पारदर्शी होनी चाहिए, ताकि आम लोगों के लिए जेलें और जेल बंदी अजूबा ना हों. यह तभी संभव है जबकि इस दिशा में सचेत प्रयास किए जाएँ.
चन्द्रकला, सामजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता, देहरादून (उत्तराखंड)
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