तस्वीर भारत विभाजन के समय की है किन्तु इतिहास के किसी दस्तावेज में यह दर्ज नहीं कि पुरुष के कंधे पर बैठी यह स्त्री उसकी पत्नी है, बहन है, बेटी है, या कौन है?
बस इतना स्पष्ट है कि एक पुरुष और एक स्त्री मृत्यु के भय से भाग रहे हैं. भाग रहे हैं अपना घर छोड़ कर, अपनी मातृभूमि छोड़ कर, अपनी संस्कृति अपनी जड़ों को छोड़ कर.
तस्वीर यह भी नहीं बता पा रही कि दोनों भारत से पाकिस्तान की ओर भाग रहे हैं या पाकिस्तान से भारत की ओर भाग रहे हैं. मैं कपड़ो और दाढ़ी से अंदाजा लगाता हूँ तो लगता है कि सिक्ख हैं,
यदि सिक्ख हैं तो पाकिस्तान से भारत की ओर ही भाग रहे हैं, तस्वीर बस इतना बता रही है कि दोनों भाग रहे हैं, मृत्यु से जीवन की ओर… अंधकार से प्रकाश की ओर… “तमसो माँ ज्योतिर्गमय” का साक्षात रूप.
अद्भुत है यह तस्वीर जब देखो तब रौंगटे खड़े हो जाते हैं, क्या नहीं है इस तस्वीर में? दुख, भय, करुणा, त्याग, मोह, और शौर् मनुष्य के हृदय में उपजने वाले सारे भाव हैं इस अकेली तस्वीर में.
पर मैं कहूँ कि यह तस्वीर पुरुषार्थ की सबसे सुंदर तस्वीर है तो तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।एक पुरुष के कंधे का इससे बड़ा सम्मान और कुछ नहीं हो सकता कि विपत्ति के क्षणों में वह एक स्त्री का अवलम्ब बने.
आप कह नहीं सकते कि अपना घर छोड़ कर भागता यह बुजुर्ग कितने दिनों का भूखा होगा। सम्भव है भूखा न भी हो, और सम्भव है कि दो दिन से कुछ न खा पाया हो.
पर यह आत्मविश्वास कि “मैं इस स्त्री को अपने कंधे पर बिठा कर इस नर्क से स्वर्ग तक कि यात्रा कर सकता हूँ” ही पुरुषार्थ कहलाता है.
शायद पुरुष का घमंड यदि इस रूप में उभरे कि “मैं एक स्त्री से अधिक कष्ट सह सकता हूँ या मेरे होते हुए एक स्त्री को कष्ट नहीं होना चाहिए” तो वह घमंड सृष्टि का सबसे सुंदर घमंड है, हाँ जी घमंड सदैव नकारात्मक ही नहीं होता.
मुझे लगता है कि स्त्री जब अपने सबसे सुंदर रूप में होती है तो ‘माँ’ होती है और पुरुष जब अपनी पूरी गरिमा के साथ खड़ा होता है तो ‘पिता’ होता है.
अपने कंधे पर एक स्त्री को बैठा कर चलते इस पुरुष का उस स्त्री के साथ चाहे जो सम्बन्ध हो, पर उस समय उस स्त्री को इसमें अपना पिता ही दिखा होगा, नहीं तो वह उसके कंधे पर चढ़ नहीं पाती.
कंधे पर तो पिता ही बैठाता है और बदले में एक बार पुत्र के कंधे पर चढ़ना चाहता है और वह भी मात्र इसलिए कि पुत्र असंख्य बार कंधे पर चढ़ने के ऋण से मुक्त हो सके.
ऋणी को स्वयं बहाना ढूंढ कर मुक्त करने वाले का नाम पिता है और मुक्त होने का भाव पुत्र… यह शायद मानवीय सम्बन्धो का सबसे सुन्दर सत्य है.
को यह भी स्मरण नहीं कि मृत्यु के भय से भागता यह जोड़ा जीवन के द्वार तक पहुँच सका या राह में ही कुछ नरभक्षी इन्हें लील गए पर वर्तमान को यह ज्ञात है कि
सवा अरब की जनसँख्या वाले इस देश में यदि ऐसे हजार कंधे भी हों तो वे देश को मृत्यु से जीवन की ओर ढो ले जाएंगे.
ईश्वर! मेरे देश को वैसी परिस्थिति मत देना पर वैसे कंधे अवश्य देना
ताकि देश जी सके, और जी सके पुरुष की प्रतिष्ठा. ताकि नारीवाद के समक्ष जब पुरुषवाद खड़ा हो तो पूरे गर्व के साथ मुस्कुराए और कहे ‘अहम ब्रह्मास्मि…!’