BY– भारती गौड़
कुछ बातें और कुछ लोग समझ और मन के परे हो गए हैं। कुछ नहीं बल्कि एक बहुत बड़ा वर्ग। दुःख है बेहद दुःख।
चूँकि दीपावली बीत गई है सो लिख रही हूँ। तब लिखती तो धार्मिक भावनाएँ आहत होती। हालाँकि वो तो अब भी होंगी। दीपावली पर लिखने से लोग गालियाँ दे देकर बताते हैं कि तुमको ये सब दीपावली पर ही सूझता है, ये अलग बात है कि ऐसा बोलने वालों को भी दीपावली ही मिलती है बोलने को। लेकिन खुद पर कौन तंज़ कसे!
जो लोग खुद को धार्मिक कहते हैं वो दूसरों को कोस कोस कर गरियाते हैं कि तुम धर्म के दुश्मन हो। मुझे समझ नहीं आता कि इनका धर्म इन्हें किसी से ऐसे पेश आने की इजाज़त देता है क्या? यदि हाँ तो कमी है तुम्हारे भी धर्म में। अव्वल तो तुम हो क्या धार्मिक? नहीं हो न, अगर होते तो ऐसा कोई धर्म नहीं जो इंसानियत को छोड़कर बाकि सारी बातें सिखाता हो। खैर…
मैं बचपन में कभी कभी कभार पटाखें चलाती थी। इसलिए नहीं कि मुझे पर्यावरण, पशु पक्षी या बीमार लोगों की चिंता होती थी, बल्कि इसलिए कि मुझे डर लगता था और सिर्फ फुलझड़ी पटाखों के नाम पर जला लेती थी।
धीरे धीरे अपनी विकसित होती समझ और माँ की समझाई बातों से दिमाग में बैठा कि ये सिर्फ और सिर्फ एक बुरी और खतरनाक चीज़ है और इसका धर्म से कोई कोई कोई लेना देना नहीं है। फिर पूरी तरह से इससे दूर हो गई। उसके बाद दीपावली पर छिपते जानवरों, सांस की बीमारी से परेशां लोगों को एक कमरे में बंद होते देखना दुखद होता गया। फिर एक दिन माँ भी दिल की मरीज़ हुई और वो वक़्त भी आया जब मुझे एक बीमारी हो गई और ये प्रदूषण जो खासकर बारूद से फैलता है, ने डरा डराकर भय भर दिया। ये सिर्फ मेरे अकेले घर की बात नहीं बल्कि यहाँ जितने लोग इन पटाखों का समर्थन सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि ये उनके धर्म को कुछ ग्राम बचाते हैं, इनके घरों में भी एक ना एक ऐसा सदस्य या पालतू जानवर या कि अपना बनाया बगीचा ज़रूर होगा, बावजूद इसके इन्हें सिर्फ और सिर्फ इसलिए भड़काना है दूसरों को क्योंकि इससे ये हम जैसे लोगों से दो पायदान ऊपर दिखना चाहते हैं।
जहाँ तक बात सुप्रीम कोर्ट की है तो जब सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा था तब भी मुझ जैसे लोगों को मालूम था कि भले ही कोर्ट बोले ना बोले हमें खुद इस अति भयावह चीज़ से दूर रहना चाहिए। पर्यावरण, मासूम पशु पक्षी, बीमार लोगों, गर्भवती महिलाओं, दीपावली के पाँच दिन तक वातावरण में ज़हर घोलने से बचने के लिए।
यहाँ अब सब कुछ बहुत अजीब और बुरा हो चला है। यूँ तो धर्म की बातें और इनका कुटिल होना दिखाता है कि धर्म ही वो शै है जिसके प्रथम अध्याय में इंसानियत, प्रेम और आपसी सहयोग को कोट किया जाता है। लेकिन कभी पढ़ा हो तब ना, पढ़कर भी माना हो तब ना।
मुझे मेरे बच्चों को ये समझाने के लिए कि पटाखों का एक सिंगल फायदा नहीं अपितु ज़माने भर के नुकसान ज़रूर है और इसका हमारे धर्म से रत्ती भर भी लेना देना नहीं है, सुप्रीम कोर्ट की ज़रूरत नहीं है।
मुझे दुःख और सिर्फ दुःख होता है कि तमाम इन्तु किन्तु परन्तु करते लोग एक मिनट के लिए रूककर भी नहीं सोचते कि आखिर ये क्या कह रहे हैं, क्या कर रहे हैं। यदि इन्हीं के घर में कोई आदमी या इनका बुजुर्ग उठकर ये कहे कि अरे प्लीज़ बंद करो ये ज़हरीली हवा फैलाना, तब भी क्या ये लोग सोशल मीडिया पर यही सब लिखते पाए जाएँगे! क्या ये अपने उस बुजुर्ग को ये कहकर गरिया देंगे कि, “चुप रहो! हमारा धर्म खतरे में हैं।”
क्या इन लोगों ने पर्यावरण की सुरक्षा में कभी दो पौधे भी लगाए हैं! क्या इन्होंने पहले से लगे वृक्षों में कभी पानी दिया है! क्या इन्होंने धर्म में लिखी तमाम अच्छी बातें अपना ली हैं! क्या इन्होंने अपने बच्चों को ये बताया है कि सुप्रीम कोर्ट बिक चुकी है! ज़हर को ज़हर मानने या ना मानने के लिए इन लोगों को किसी फैसले का इंतज़ार रहता है तो फिर ये लोग किस बात के पढ़े लिखे समझदार!
पड़ोसी कीचड़ में खेलेगा तो आप उसके विरोध में सेफ्टी टैंक में खेल लेंगे! क्या हो गया है इन समझदार लोगों को! अरे भाई पटाखों से क्या आप आने वाले वक़्त में विरोध स्वरुप खून भी कर देंगे! बस ध्यान रखना कभी आपका कोई अपना इस ज़द में ना आ जाए। बजरंग बली की कसम तब लिखना तो क्या बोलने और रोने के भी काबिल ना रह जाओगे। जब तक खुद पर ना बीते दूसरों की तकलीफ़ का मोल राख़ बराबर ना!
ज़मीं से जुड़ा कोई काम करके दिखाइए तब बात कीजिए।
मैंने देखा आस पास के लोग मान भी जाते हैं अगर उन्हें बोला जाए कि भाई प्लीज़ थोड़ा कम कर लीजिए, जानवर डर रहे हैं, अन्दर बैठे आदमी को तकलीफ हो रही है लेकिन मजाल है यहाँ लिखने वाले लोगों का ज़हर फ़ैलाने का धंधा रत्ती भर भी कम हो जाए।
धिक्कार है! लानत।
मैं सच में दुखी हूँ। एक बार मैं कहती हूँ सिर्फ एक बार रूककर सोचिए, प्रकृति और जीते जागते लोगों से ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है? सिर्फ एक बार! प्लीज़। ये पर्यावरण नहीं रहेगा तो धर्म भी कहाँ रहेगा! धर्म में नहीं लिखा क्या कि आस पास की हवा को शुद्ध बनाए रखना हर मानव का कर्तव्य है! फिर कैसा धर्म पढ़ा आपने और क्या पढ़ा रहे हैं अपने बच्चों को!
थम जाइए। थम जाइए। और प्लीज़ ये बचकानी बात मत कीजिए कि एक दिन पटाखों से क्या होता है। अव्वल तो ये दस दिन तक चलते हैं दूसरी बात आप इतने नादान नहीं कि आपको सच में नहीं पता कि दस दिन तक चलते हैं और दस दिन आगे तक असर रहता है। मैं पूरा महीना सांस को रोती हूँ, मेरे जैसे लाखों लोग भी।
चालाक मत बनिए। चालाकी दिख जाती है जैसे मूर्खता दिख जाती है।
आप वो लोग हैं जो पर्यावरण के लिए तपस्या कर रहे लोगों के हवन कुंड में पानी डालते हैं। आप वो लोग हैं जो जानवरों और बीमार लोगों से बराबर हिसाब से नफरत करते हैं। आप वो लोग हैं जो इंसानियत और प्रेम से कोसों दूर हैं और मेरी नज़र में सिर्फ और सिर्फ इस धरती के समझदार प्राणी हैं जिनके आगे मैं स्वयं को मूर्ख और बेवकूफ पाती हूँ।
मैं और कुछ नहीं कहना चाहती सिवाय इसके कि मैं दुखी हूँ कि तर्कों की दुनिया में इंसानियत ने खुद अपनी हत्या कर दी है और हर चीज़ से ऊपर है वो धर्म जो धर्म कभी सच में ना पढ़ा गया ना समझा गया। पटाखों से धर्म बचेगा! आर यू सीरियस! आर यू? आर यू?
इंसानियत भी एक धर्म हुआ करता था।
आपका ऐसा आनंद जो विरोध स्वरुप जन्मा है, किसी और की पीड़ा है।
पीएस; मैं इस पर बहस नहीं करूँगी। मैं कम समझदार
हूँ। मेरी खामोशी को अपनी जीत समझ लीजिएगा।
डिस्क्लेमर: लेख में दिए गए संपूर्ण विचार लेखिका के निजी विचार हैं। जानकारी और तथ्य को लेकर द फायर की किसी भी प्रकार से कोई जवाबदेही नहीं है।