BY- सुशील भीमटा
1947 में भारत जब अंग्रेजी हुकूमत से वीरों के बलिदानों और वतनपरस्तों के प्रयासों से आजाद हुआ तो देश के सामनें बंटवारे का एक बड़ा सवाल पैदा हो गया, जो हिन्दू और मुस्लिम समुदाय को लेकर था। दोनों समुदाय के लोग अपने अपने लिए आजाद देश की मांग करनें लगे। क्योंकि दोनों के रीती-रिवाजों और जीवन यापन के अलग अलग तरीके और सलीके थे।
इस बंटवारे को लेकर जब जनमत की और ध्यान दिया गया तो जनता की राय अनुसार हिन्दोस्तान के जिस हिस्से को पाकिस्तान बनाया जाना था उस हिस्से में बहुत सी हिंदू आबादी की भी जमीनें और घर परिवार और जिस भाग को हिन्दोस्तान बनाया जाना था उस भाग भी मुस्लिम आबादी बहुत थी और जीवन बसर कर रहे थे। ऐसे में हिन्दू मुस्लिम समुदाय में ये समझोता हुआ कि वो अपनी इच्छानुसार जिस भी देश में रहना चाहे उन्हें उसकी देश सरकार से आजादी दी जाये। ताकि किसी की जमीन घर परिवार ना छूट जाये।
इसी बातचीत के चलते उस समय 75% मुस्लिम आबादी वाले काश्मीर के आवाम उनके नेता शेख अब्दुला ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामनें ये मांग रखी कि हिन्दोस्तान के इस 75% हिस्से को आजाद रखा जाये और इसकी सुरक्षा का जिम्मा भारत सरकार का होगा।
ये एक ऐसा सवाल था जो क्यों उठाया गया,इसका क्या औचित्य था और क्यों ऐसा नासमझ सवाल किया गया ? ये इतिहास के पन्नों में दफन होकर रह गया! जब पाकिस्तान बन ही रहा था तो ना जानें ये शेख अब्दुला के मन में आजाद काश्मीर बनानें का ख्याल क्यों आया?
जब पाकिस्तान बनाया ही जा रहा था तो फिर आजाद कश्मीर किस लिए ? बस यहीं से विवाद का संवाद खड़ा हुआ और तत्काल प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुला की दोस्ती की एक ऐसी दास्तां लिख गई जो आज भी लहू बहाकर हाल-ए-दौर बयां करती है। भारत और पाकिस्तान को तो 14-15 अगस्त 1947 को मध्यरात्रि के समय कानूनी तौर पर अलग अलग देश घोषित कर दिया गया, फिर बात भारत की।
उस समय देश में लगभग 556 रियासतें थी जहां हिंदू राजाओं और मुस्लिम बादशाहों का राज था। उन दिनों काश्मीर पर राजा हरिसिंह का राज था। जो 1925 से 1970 तक राज करते रहे। आजाद काश्मीर के मुद्दे को लेकर शेख अब्दुला और राजा हरिसिंह में समझौता हुआ कि उनकी सियासत को आजाद काश्मीर के नाम से स्वतंत्र रखा जाएगा और उसकी सुरक्षा का जिम्मा भारत सरकार का होगा। इस सन्धि के बाद शेख अब्दुला ने नेहरू जी के सामने राजा हरिसिंह की रियासत कश्मीर को आजाद रखनें का और उसकी सुरक्षा का ज़िम्मा भारत सरकार को उठानें का प्रस्ताव रखा। पंडित नेहरू नें ये प्रस्ताव भी मंजूर कर लिया। ये एक ऐतिहासिक भूल थी।
फिर 1948 में आजाद भारत के लिए नया संविधान लिखनें के लिए संविधान सभा का गठन किया गया। जिसको लिखनें का जिम्मा डॉ भीमराव अम्बेडकर जी को दिया गया। भारत के संविधान को लिखनें में 2 साल 11महीनें 17 दिन लग गए और संविधान सभा के 283 सदस्यों द्वारा इस हस्तलिखित संविधान पर मोहर लगाकर पारित कर दिया गया और 26 जनवरी 1950 की इसे भारत में लागू कर दिया गया।
अब भारत देश पूर्ण रूप से आजादी से अपने फैसले लेने योग्य हो गया था। मगर आजाद कश्मीर का मुद्दा अभी भी यथास्थिति में चल रहा था। फिर शेख अब्दुला के प्रस्ताव को देखते हुए कश्मीर के लिए एक अलग संविधान लिखा गया और काश्मीर के संविधान में धारा 370 और अनुछेद 35 A जोड़कर एक अलग संविधान को 17 नवंबर 1956 को रूप दिया गया। काश्मीर के इस संविधान को 26 जनवरी 1957 को अस्तित्व में लाया गया। इसके बाद इस क्षेत्र को आजाद काश्मीर नाम देकर एक अलग संविधान सभा बनाई गई जिसका कार्यकाल 6 वर्ष तह किया गया। साथ में संविधान में धारा 356 को भी डाला गया। जिसके अनुसार अगर कोई राज्य सरकार उस राज्य को संविधान के अनुसार नही चला पाये तो भारत सरकार को ये अधिकार है कि वो उसे अपने अधीन कर सकती है।
इस तरह एक ही देश में दो अलग अलग कानून लागू किए गए। जो आज तक विवाद और अपवाद का कारण बनकर देश का सकुं और जवान निगल गए। हमें आजादी के एहसास से दूर कर गए। ये 1947 में सिर्फ एक सवाल है जो सिर्फ सियासी जाल है और आज तक अनबूझा सवाल मचाये जाता बवाल है और धरती वतन की सदियों से हो रही लहूलुहान है।
एक बड़ा सवाल ये है कि जो भूल नेहरू जी ने की थी क्या उसे दूर नही किया जा सकता था ?
किया जा सकता था मगर तब भी सियासत थी और तब से अब तक भी सियासत ही की जा रही है इस मुद्दे के चलते काँगेस ने 60 साल और भाजपा नें 10 साल राज कर लिया मगर इस मुद्दे को वहीं का वहीं छोड़ दिया और वतनपरस्ती से मूँह मोड़ दिया। जिसनें देश की आर्थिकी और जवानों की रगों से खून निचोड़ दिया। आजादी से अब तक झौंपड़ियों फुटपातों पर सोता, सूली पर चढ़ता किसान, सुनें खेत खल्याण, सरहदों पर सियासत की बलि चढ़ता जवान, लाशों से भरे श्मशान, गरीबी से रोता-बिलखता और जाति-धर्म के नाम पर कटता मरता है आज भी हिन्दोस्तान। अब जब हिन्दोस्तान की आवाम जगी तो तब जाकर सर्वोच्च न्यायाल्य में तारीख लगी।
“अब निगाह आवाम की देख रही सिर्फ देश के कानूनदान है! फेरते है पानी उमीदों पर या चढ़ाते परवान है” ? एक ऐतिहासिक फैसला होना चाहिए खोए हुए आजादी के एहसास के लिए। ये सियासी जंग हिन्दोस्तान निगल गई इसे पूर्णविराम दो, 2019 में हिन्दोस्तान की आजादी को आवाम की आबादी का सलाम दो।
अबके तिरंगे को आजादी से लहराने दो, ना लहू से सना सरहद से तिरंगा फिर आये कभी, इस अनुछेद 35A को संविधान से जानें दो।
सुशील भीमटा