BY– SAEED ALAM KHAN
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात 1983 में घटित सबसे दुखद और डरावनी घटनाओं में से एक माना जाता है जिसमें एक विशेष समुदाय मुस्लिम वर्ग को जिस तरीके से कत्लेआम किया गया, वह अत्यंत ही शर्मनाक रहा है.
इस सामूहिक कत्लेआम में लगभग 1800 लोग जिसमें बूढ़े, जवान, औरतें और बच्चे थे मौत के घाट उतार दिया गया, यद्यपि सरकारी आंकड़ा करीब 3000 मौतों का रहा है.
आज से 38 साल पहले 18 फ़रवरी, 1983 को असम के नेली में “नेली नरसंहार” हुआ था जिसमें करीब 3 हजार से ज़्यादा मुसलमानों की हत्या हुई थी, उस समय इंदिरा गांधी की सरकार थी.
इस दंगे में पूरा जोर असमिया पहचान पर दिया गया था, दंगाइयों के नजर में वे सारे लोग जो बांग्लादेश से आए अप्रवासी के रूप में स्थानीय लोगों के लिए चुनौती थे.
असमी लोगों को यह डर था कि उनके सीमित संसाधनों पर यह लोग कब्जा करना चाहते हैं. आपको बताते चलें कि यह दंगा पूर्व प्रायोजित था.
नौगांव में जिस तरीके से हिंसा फैलाई गई वहां मुस्लिम आबादी 40 फीसदी थी, जिला प्रशासन यदि पूर्व की रिपोर्ट को ध्यान देकर नीति बना लेता तो शायद जिस तरीके से हमलावरों ने निर्दोष और निरीह लोगों,
बच्चों, बूढ़ों, औरतों को मौत के घाट उतार दिया, शायद नहीं होता. इसमें मरने वालों में 70 प्रतिशत महिलाएं जबकि 20 प्रतिशत बूढ़े थे.
क्या आपको पता है कि इस नरसंहार को दूसरी आलमी जंग के बाद का सबसे बड़ा नरसंहार कहा गया था? इस नरसंहार के बाद आईएएस के पी तिवारी कमीशन का गठन किया गया जो 600 पेज की रिपोर्ट 1984 में सरकार को सौंपी थी.
वैसे आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इतना बताया कि इन दंगों को कौमी कहना गलत है क्योंकि इसके केंद्र में जमीन, भाषा और जनजातीय दरारों से जुड़े मसले हैं जिसका मूल उद्देश्य था असम से प्रवासियों को बाहर निकाल कर होमलैंड की स्थापना करना.
लेकिन उस रिपोर्ट को कांग्रेस ने सार्वजनिक तक नही किया, 688 क्रिमनल केसेज रजिस्टर किया गया पर कार्रवाई किसी पर भी नही हुई.
सबसे शर्मनाक बात ये है कि भारत सरकार ने 1985 में कमीशन की इस रिपोर्ट को ख़त्म कर दिया और इतने बड़े नरसंहार के केस को हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दिया.
मानवता व इस राष्ट्र के लिये इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि इतना बड़ा नरसंहार होने के बावजूद किसी एक भी शख्स को सजा नही हुई, सब आरोपी आज़ाद घूम रहे हैं.