BY-RAJESH PRIYADARSHI
‘देशद्रोहियों’ की लंबी होती सूची में एक और नाम जुड़ गया है इतिहासकार रामचंद्र गुहा का. गुहा अहमदाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर नहीं होंगे क्योंकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की नज़रों में वे ‘शिक्षा और देश के लिए नुकसानदेह हैं.
रामचंद्र गुहा के बारे में बात करने से पहले ज़रा पीछे चलें तो इस ट्रेंड को समझने में आसानी होगी.
27 सितंबर 2018- मध्य प्रदेश में मंदसौर के एक सरकारी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर ने क्लासरूम में नारेबाज़ी कर रहे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के छात्रों से पैर छूकर माफ़ी मांगी थी.
यह वीडियो एक दिन के लिए वायरल हुआ उसके बाद लोग उसे भूल गए, ‘देशद्रोही’ घोषित किए गए प्रोफ़ेसर साहब ने गांधीवादी तरीक़े से अपना विरोध प्रकट किया था, और समझदारी भी इसी में थी.
उसी राज्य में उज्जैन में 2006 में माधव कॉलेज के प्रोफ़ेसर सभरवाल की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी, उन्हें पीटने का आरोप जिन छह लोगों पर लगा था वे भी एबीवीपी के ‘देशभक्त छात्र नेता’ थे.
यह बात मंदसौर वाले प्रोफ़ेसर साहब को शायद याद रही होगी.
प्रोफ़ेसर सभरवाल हत्याकांड के एक प्रमुख अभियुक्त की तबीयत का हाल पूछने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 2008 में अस्पताल गए थे जब हत्या के मुक़दमे की सुनवाई जारी थी.
ज़ाहिर है, आलोचना हुई कि मुख्यमंत्री हिंसक प्रवृति वाले लोगों का हौसला बढ़ा रहे हैं. लेकिन यह बात भी आई-गई हो गई. राज्य सरकार ने प्रोफ़ेसर सभरवाल की हत्या के मामले में जो रवैया अपनाया उस पर कुछ लोगों ने सवाल उठाया.
बहरहाल, 2009 में सभी छह अभियुक्त ‘सबूतों के अभाव में’ बरी हो गए, इन सभी का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन एबीवीपी और संघ परिवार की बजरंग दल जैसी संस्थाओं से था. बरी होने के बाद कुछ लोगों को शिक्षण संस्थानों में नौकरियां भी दी गईं.
कैम्पस है नियंत्रण की पहली सीढ़ी
बीजेपी शासित राज्य मध्य प्रदेश से 10-12 साल पहले एक तरह का ट्रेंड शुरू हुआ. मंदसौर और उज्जैन जैसी कई घटनाएं वहां हुईं, लेकिन 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार के आने के बाद, एबीवीपी से जुड़े छात्रों ने देश भर के कैम्पसों में ख़ुद को ‘देशभक्त’ और बाक़ी सभी को ‘देशद्रोही’ घोषित करने का अभियान छेड़ दिया.
दिल्ली के रामजस कॉलेज और जेएनयू से लेकर, इलाहाबाद और हैदराबाद तक सभी घटनाएं एक जैसी हैं और उन्हें अलग-अलग वाकयों की तरह नहीं बल्कि एक ट्रेंड की तरह देखा और समझा जाना चाहिए.
आरएसएस के निर्देशों के तहत, एबीवीपी या दूसरे हिंदुत्ववादी संगठन जो कुछ कर रहे हैं उसके पीछे सरकार पूरी ताक़त के साथ खड़ी है.
शिक्षण संस्थानों का हिंदूकरण देश के सभी संस्थानों पर आरएसएस के नियंत्रण की पहली सीढ़ी है और इस प्रोजेक्ट पर काफ़ी गंभीरता से काम जारी है. पूरी कोशिश है कि किसी भी कैम्पस में हिंदुत्व के अलावा, किसी और तरह की आवाज़ न सुनाई दे.
मसलन, दो साल पहले वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरराजदन को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पुलिस के घेरे में वापस लौटना पड़ा क्योंकि एबीवीपी उन्हें ‘देशद्रोही’ घोषित कर चुकी थी.
‘गांधी बिफ़ोर इंडिया’ और ‘इंडिया आफ़्टर गांधी’ जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित किताबें लिखने वाले इतिहासकार रामचंद्र गुहा, गांधी के राज्य गुजरात में ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित कर दिए गए हैं.
एबीवीपी के छात्रों ने तय किया कि अहमदाबाद यूनिवर्सिटी में उनका पढ़ाना ‘शिक्षा और राष्ट्र दोनों के लिए’नुकसानदेह होगा.
कहते हैं आम तौर पर देशद्रोही का लेबल चिपका देना ही काफ़ी होता है, लेकिन इस मामले में यूनिवर्सिटी प्रशासन को एक लंबी चिट्ठी लिखी गई जिसमें साबित करने की कोशिश की गई कि रामचंद्र गुहा सचमुच राष्ट्रविरोधी हैं. उस चिट्ठी में गुहा की किताबों के अंशों का हवाला दिया गया, यह तार्किक तरीक़े से अपनी बात रखने की शायद एबीवीपी की पहली कोशिश थी.
लेकिन काश वे जानते कि लिखित शब्दों के साथ ” “ का क्या मतलब होता है. गुहा के ख़िलाफ़ जो चार सबूत पेश किए गए हैं, उनमें से दो उन्होंने नहीं लिखे हैं बल्कि वे ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन के नेता ईवी रामास्वामी ‘पेरियार’ के लेखन और भाषण के अंश हैं जिनका गुहा ने अपनी किताब में ” ” के साथ हवाला दिया है.
इस चिट्ठी में कई दिलचस्प बातें लिखी हैं, जैसे कि “गुहा हमारे प्राचीन और महान राष्ट्र का अपमान करते हैं, हमारी संस्कृति दुनिया भर में श्रेष्ठ है यह बात संसार मानता है, वे दिशाहीन व्यक्ति हैं, वे हमें क्या सिखाएँगे?”
ख़ैर, रामचंद्र गुहा ने कह दिया है कि वे अहमदाबाद यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाएंगे, उन्होंने कहा कि इस निर्णय का कारण वे परिस्थितियां हैं जो उनके नियंत्रण से बाहर हैं.
हर जगह हिंदुत्व
एक तर्क ये भी है कि जब कांग्रेसी और वामपंथी अपनी पसंद के लोगों को शिक्षण संस्थानों में भर सकते हैं तो हम क्यों नहीं?
यही वजह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के सचिव रहे शक्ति सिन्हा नेहरू मेमोरियल चला रहे हैं और वहां से प्रताप भानु मेहता जैसे गंभीर स्कॉलर को हटाकर टीवी न्यूज़ एंकर अर्णब गोस्वामी को बिठाया गया है जो हर बात ‘ज़ोर से’ कहने के लिए जाने जाते हैं.
इसी तरह भारत में समाज विज्ञान के क्षेत्र में रिसर्च की सबसे बड़ी सरकारी संस्था आईसीएसएसआर के चेयरमैन बृजबिहारी कुमार हैं जिनका मानना है कि जो लोग मुग़लों के डर से जंगल में भाग गए वे लोग आदिवासी बन गए,
वे यह भी कहते हैं कि भारत में जाति प्रथा नहीं थी, हिंदू धर्म में सारी विकृतियां मुसलमानों और अंगरेज़ों के कारण आईं.
विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई का हाल भी कुछ अलग नहीं है. ज़्यादातर ध्यान ज्योतिष, संस्कृत, गोबर, गोमूत्र, सरस्वती नदी की खोज वगैरह पर केंद्रित है.
आरएसएस की स्पष्ट राय है कि “हिंदू धर्म में विश्व का समस्त ज्ञान निहित है, विदेशी असर के कारण हम अपने प्राचीन ज्ञान पर गर्व करना भूल गए हैं, इसलिए उस प्राचीन ज्ञान को दोबारा स्थापित करना राष्ट्रहित में है”.
इतिहास के पाठ को भी हिंदूवादी नज़रिए से बदलने का काम लगातार जारी है, भले ही तथ्य और तर्क कुछ और कहते हों. राजस्थान में राणा प्रताप सदियों बाद अकबर के ख़िलाफ़ विजयी घोषित हो ही चुके हैं.
ऐसे में शिक्षा का क्या होगा ?
जेएनयू को ‘थिंक टैंक’ बनाने की जगह, सवाल पूछने वालों के सामने असली टैंक लाने की रणनीति, हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में ऊंचा तिरंगा लगाने का निर्देश,
भारतीय जनसंचार संस्थान में हवन वगैरह ऐसे काम हैं जो राजनीति तौर पर असहमत लोगों को उकसाने के लिए किए जाते हैं, अगर वे टैंक या झंडा लगाने से होने वाले फ़ायदे पर सवाल उठाएंगे तो उन्हें देशद्रोही घोषित करना काफ़ी आसान होगा.
एबीवीपी का कहना है कि शिक्षा के हित में यही है कि रामचंद्र गुहा को प्रोफ़ेसर न बनाया जाए. किन्तु असल सवाल यह है कि अगर वास्तव में एबीवीपी को शिक्षा की चिंता है तो उसने कब पूछा कि यूजीसी में क्या हो रहा है,
रिसर्च की सीटों और बजट में क्यों कटौती की जा रही है, कई शिक्षण संस्थानों का निजीकरण करने की तैयारी क्यों हो रही है जिससे फ़ीस बढ़ जाएगी ?
यह कितनी अजीब बात है कि प्राचीन हिंदू परंपरा जिस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गर्व है, उस परंपरा में ज़्यादातर ज्ञान प्रश्नों और उनके उत्तरों के माध्यम से दिया गया है.
प्रश्न पूछने के लिए गुरुकुल में प्रेरित किया जाता था, प्रश्न ही यक्ष होता था, उत्तर नहीं. यहां तक कि उपनिषदों में एक प्रश्नोपनिषद भी है.
शास्त्रार्थ की परंपरा वाले देश में असहमत विचारों को दबाना, उन्हें तर्क से नहीं, ताकत से हराना, कभी हिंदू परंपरा का हिस्सा नहीं रहा है.
शिक्षण संस्थानों में देशभक्ति के नाम पर सवाल पूछने की मनाही, आगे कैसे नागरिक तैयार करेगी ? क्या समाज विज्ञान बिना पेरियार, फुले और आंबेडकर के पढ़ाया जाएगा क्योंकि ये लोग ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के कटु आलोचक रहे हैं और आरएसएस की ‘महान हिंदू सभ्यता’ की थ्योरी पर सवाल खड़े करते हैं ?
बहरहाल, शिक्षा को लेकर किसी गंभीर चिंता की उम्मीद सरकार में बैठे लोगों से करना बेमानी है. उसके बारे में तो छात्रों और युवाओं को सोचना चाहिए. तोतारंटत वाले देशभक्त देश की बेहतर सेवा करेंगे या तार्किक और वैज्ञानिक तरीक़े से पढ़े-लिखे देशभक्त ?
(बीबीसी हिंदी )