जेएनयू की उस काली रात की ऐसी आपबीती जो कोई सुन सिहर जाए


BYDevi Lal Godara


मैं पुस्तक मेले में था। पता चला कि जेएनयू में हालात ठीक नहीं है। हम वापस लौटे। जेएनयू गेट पर लगभग 300 पुलिस वाले खड़े थे। करीबन शाम छह बजे हम अपने हॉस्टल पेरियार के सामने थे। कैब ने हमें हमारे हॉस्टल वार्डन के घर के ठीक सामने ड्राप किया। वॉर्डन घोषित संघी है, जैसे हम घोषित लेफ्टिस्ट या NsuiT हैं। उनके साथ लगभग बीस स्टूडेंट्स खड़े थे, जिनमें से कइयों से मेरी पहचान और बातचीत है। ‘बातचीत’ कर रहे होंगे!
मेरे साथ मेरा क्लासमेट यशवंत भी था। हम हॉस्टल गेट की तरफ़ बढ़े। आगे हमने देखा कि लोहे के सरिए, हॉकी स्टिक, क्रिकेट बेट, हथौड़े, लाठियां लिए हुए बहुत लोग खड़े हैं, जिन्हें मैं नहीं पहचान पा रहा था। दरअसल वो जेएनयू के थे ही नहीं।

यशवंत ने सुझाव दिया कि हम अपने हॉस्टल न जाकर कावेरी की तरफ चलते हैं। मैंने उससे थोड़ी बहस इसलिए की कि हमें तो इस हॉस्टल में वामी और रामी सब जानते हैं, क्या उनका हाथ उठेगा हम पर! हालांकि पिछले आठ सालों से वे हमें नक्सली कहते आए हैं, हम उन्हें संघी कहकर चिढ़ाते रहे हैं। मजे की बात यह कि इन सब के बीच चाय-सिगरेट और सुख-दुख भी साझा करते आए हैं। अंततः अनजान और नकाब पहने चेहरों से मेरा विश्वास टूट गया और हमने थोड़ी देर ढाबे पर बैठकर इंतज़ार करना चाहा कि माहौल ठीक हो।

अचानक देखता हूँ हथियारों से लैस नकाबपोशों की संख्या बढ़ती जा रही है। हिम्मत टूट गई और चाय छोड़कर कावेरी के रास्ते साबरमती पहुँच गए जहाँ और भी लोग थे। उसी समय दिनभर की झड़पों के खिलाफ अध्यापकों द्वारा आयोजित शांति मार्च गंगाढाबा से लौट रहा था, गोदावरी बस स्टैंड पर अध्यापकों के मार्च पर नकाबपोशों ने हमला किया, कई अध्यापक घायल हुए। फिर हाथों में पत्थर, डंडे, सरिए लिए हुए भीड़ हमारी तरफ भागी। निहत्थे छात्रों में भगदड़ मच गई। सब जिधर जगह दिखी भागे। मेरा दोस्त जंगल में जाकर छुपा और हम साबरमती। हम एक रूम में लगभग 15 लोग थे।हमारे पीछे करीब 80 के लगभग गुंडे हॉस्टल में घुसे। लड़कियों की विंग में जाकर गन्दी गन्दी गालियाँ दी गई। जिसका दरवाजा खुला मिला, या ये लोग तोड़ पाए, उन्हें मारा गया। बदतमीजी की गई।

हमारे दरवाजे के साथ चार मजबूत लोग खड़े थे। बाहर से सरियों और हथौड़ों से लगातार दरवाजा तोड़ने की कोशिश की जा रही थी। हम डरे हुए थे, हमारे साथ कई लड़कियाँ भी थीं। दरवाजे से सटे आठ मजबूत हाथों ने हमें लिंच होने से बचाया। कई कमरों से स्टूडेंट्स पीछे कूद गए और अपनी जान बचाई। किसी भी कमरे की खिड़कियाँ साबुत नहीं छोड़ी। चमत्कार यह है कि ABVP से सम्बद्ध किसी भी स्टूडेंट्स के दरवाजे को हाथ भी नहीं लगाया गया।

स्पष्ट है कि उनके साथ ऐसे भी लोग थे जिन्हें हर कमरे की पहचान थी। हमारे दो साथी उस हॉस्टल के वार्डन के घर में घुस गए, उन्हें बिठाया गया। बाद में उन्होंने उस अध्यापक के घर में लगी किताबों को देखा। हिंदुत्व कैसे स्थापित हो, मैने गांधी को क्यों मारा, सावरकर के महत्त्वपूर्ण निबन्ध, और हेडगेवार-गोलवलकर के रद्दी साहित्य को देख उन्हें फ़िल्म गंगाजल का नोनुवा याद आया और मौका देखकर भाग निकले।

यह डेढ़ घण्टे का समय बहुत यातनामय था। अफ़सोस यह कि मारने वाले भी पहचान के हैं, मार खाने वाले भी। पता नहीं क्यों इन्हें लगता है कि भाड़े पर लाए गए सौ गुंडे हमेशा उनके साथ रहेंगे और उनका कवच बने रहेंगे। जबकि कल ढाबों पर आपस में फिर से टकरा जाना है। उस समय ये नज़र मिला पाएंगे या नहीं, नहीं पता।

इस पूरे प्रकरण में पुलिस की भूमिका बहुत संदिग्ध रही। यह सब ड्रामा दो घण्टे चला, हमसे 500 मीटर दूर पुलिस के तीन सौ जवान खड़े थे और तमाशा देख रहे थे। कमरे में हमारे साथ जेएनयू के एक प्रोफेसर भी बंद थे। तीन बार उन्होंने पुलिस को फोन किया लेकिन कोई फायदा नहीं। दो घण्टे बाद जेएनयू गेट से किसी ने सूचना दी कि गेट पर हिन्दू संगठनों के कई लोग आ रखे हैं। पाँच मिनट बाद पता चला कि डॉक्टर योगेंद्र यादव को पुलिस के सामने उन लोगों ने मारा। उसी समय दूसरी सूचना मिली कि एम्स में हमारे 15 साथी भर्ती हुए हैं, जिनमें जेएनयू छात्राध्यक्ष आइशी की हालत ज्यादा गंभीर है। तीसरी सूचना यह कि गृह मंत्रालय ने स्वयं द्वारा प्रायोजित घटना पर दुख जताया है। इसी कड़ी में निर्मला सीतारमण ने भी दुख जताकर इतिश्री की ।
अभी कैम्पस में मातम है, सन्नाटा है। किसी बड़े तूफान से पहले का सन्नाटा।

 

 

नोट – Devi Lal Godara की आपबीती। जिसे उन्होंने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर साझा किया है ।

 

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