मिली सूचना के मुताबिक समलैंगिक संबंधों में यकीन रखने वाले जोड़ों ने सरकार से यह मांग किया था कि उन्हें भी अपनी रुचि के अनुसार समाज में सम्मानजनक स्थिति से जीने का अधिकार दिया जाए.
इसके अंतर्गत ये समलैंगिक जोड़े विवाह करने तथा उसे सामाजिक मान्यता प्राप्त करने के लिए सरकार से मांग किया है हालांकि सरकार ने इस मांग को ठुकराते हुए अपने जवाब में हलफनामा दायर करके बताया है कि-
“समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय परिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती है, क्योंकि देश में एक जैविक पुरुष को ‘पति’ तथा एक जैविक महिला को ‘पत्नी’
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और दोनों के बीच के मिलन से उत्पन्न संतान की पूर्व कल्पना की गई है. यह कानून विभिन्न धार्मिक समुदायों के रीति-रिवाजों से संबंधित कारणों या संहिताबध कानूनों में विश्वास से बने होते हैं.”
सरकार ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि भारत में विवाह से ‘पवित्रता’ जुड़ी हुई है जो सदियों पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार तथा सामाजिक मूल्यों पर आधारित हैं.
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आपको बताते चलें कि समलैंगिक विवाह के पक्षधरों का कहना है कि सरकार ने उनकी मांगों को ठुकरा कर उनके मौलिक अधिकारों का हनन किया है.
इसके अतिरिक्त याचिकाकर्ताओं ने कहा कि ‘विशेष विवाह अधिनियम’ और ‘विदेशी विवाह अधिनियम’ की व्याख्या सरकार इस प्रकार से करे कि वह समलैंगिक विवाहों पर भी लागू हो सके.
एक याचिकाकर्ता उदित सूद ने विशेष विवाह अधिनियम को जेंडर न्यूट्रल करने की मांग किया है ताकि यह सिर्फ ‘महिला’ और ‘पुरुष’ की बात न कर सके.
किस तरह की हैं चुनौतियां ?
सितंबर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था. इसके अंतर्गत दो व्यक्तियों की आपसी रजामंदी से बनाए गए समलैंगिक संबंध को अपराध नहीं माना जाएगा.
इसके कारण धारा 377 को चुनौती दी गई थी जो समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाती है. वास्तविकता यह है कि यदि सरकार इनकी मांगों को मान लिया तो
कई तरीके के कानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता उत्तराधिकार आदि में भी बदलाव लाने पड़ेंगे. जैसे यदि एक ही जेंडर के लोग शादी करेंगे तो गुजारा भत्ता कौन किसको देगा?
घरेलू हिंसा में अगर एक ही जेंडर के लोग हैं तो इसमें पीड़ित और अभियुक्त कौन होगा? ससुराल-मायका, पितृ धन और मातृ धन क्या है? आदि