देश में लज्जा और उधर निर्लज्जता की सारी हदें पार करती सत्ता: बादल सरोज (Part 2)

इतना सब होने और होते रहने के बाद भी देश का प्रधानमंत्री चुप रहा. उनकी चुप्पी चुनिन्दा थी-वरना बाकी जगहों पर दूसरे मामलों में, उनकी घनगरज धुआंधार थी.

वे इस बीच कोई दस दिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव में गली-चौराहों पर चुनावी सभाओं में गरजे, अपने कारोबारी मित्रों के धंधों को बढवाने के लिए जापान,

पापुआ न्यू गिनी, ऑस्ट्रेलिया, अमरीका, मिस्र, फ़्रांस और संयुक्त अरब अमीरात सहित कोई आधी दुनिया में जा-जाकर बोले.

अमरीकी माल के लिए बाजार खुलवाने के बाद तो सुनते हैं, उनके सांसदों ने काफी तालियाँ भी पीटीं. मणिपुर पर पूरे 77 दिन बाद बोले भी तो तब,

जब वायरल वीडियो दुनिया भर में क्षोभ पैदा कर चुका था. बोले भी तो संसद में नहीं, संसद के बाहर बोले. बोले भी तो ऐसा कि उससे न बोलना ज्यादा ठीक था.

घटना मणिपुर की थी, हिंसा मणिपुर में हो रही थी, मोदी राजस्थान और छत्तीसागढ़ सहित “सभी मुख्यमंत्रियों” को अपना काम ठीक से करने की सलाह दे रहे थे.

एक बार भी न बीरेन सिंह का नाम लिया, न वहां जारी हिंसा रोकने की अपील ही की. शर्मिन्दा भी खुद होने की बजाय देश की 140 करोड़ आबादी को बता दिया.

यह सहज या तुरतिया छीछालेदर से बचने का राजनीतिक दांव नहीं था. शब्दों के इस चयन के पीछे इरादा साफ़ था: उच्चतम संभव स्तर से निर्लज्जता का महिमामंडन कर, उसे एक आम आख्यान बनाना.

विडम्बना का प्रबंधन यहीं तक नहीं रहा, मणिपुर हिंसा पर जिस दिन मोदी बोल रहे थे, उसी दिन उनकी पार्टी की हरियाणा सरकार

दो शिष्याओं के बलात्कार में 20 वर्ष और एक शिष्या की हत्या में आजन्म कैद की सजा काट रहे अपराधी गुरमीत राम रहीम को 7 वीं बार पैरोल पर रिहा कर रही थी.

ठीक उसी दिन दिल्ली की एक अदालत में यौन उत्पीड़न के अभियुक्त भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह की जमानत याचिका पर मोदी-शाह की पुलिस मिमियाकर भी आपत्ति नहीं कर रही थी.

जमानत दिलाने के बाद भाजपा इसी ब्रजभूषण शरण सिंह से मणिपुर पर पत्रकार वार्ता करवा रही थी. गुरमीत राम रहीम और ब्रजभूषण अकेले नहीं है,

बिल्किस बानो काण्ड में “अच्छे आचरण” के नाम पर रिहा किये दोष प्रमाणित हत्यारे और सामूहिक बलात्कारियों में से 11 तो दस हजार दिन, मतलब तीन साल से ज्यादा पैरोल पर ही रहे थे.

एक तो 1576 यानि कोई साढ़े चार साल पैरोल पर ही रहा और पैरोल पर रहते हुए भी छेड़खानी और बलात्कार के प्रयास के आरोप अंजाम देता रहा.

इन सब बातों को मैतैई समुदाय के स्वयंभू नेता प्रमोद सिंह की कुकी आदिवासियों के सफाए वाली नस्लीय हिंसा के एलान, सीधी के पेशाब कांड के बाद अपराधी के लिए

लाखों रूपये का चन्दा इकट्ठा किये जाने, ज्योति मौर्य के निजी जीवन के प्रसंग को लेकर तूमार खड़ा करने, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण का आव्हान करने वाले

एक कथित प्रवचनकर्ता बाबे द्वारा ब्राह्मणी श्रृंगार न करने वाली महिलाओं को खाली प्लाट बताने, सब्जी-भाजी की महंगाई के लिए सीधे-सीधे मुसलमानों पर

तोहमत जड़ कर खुद असम के मुख्यमंत्री हेमंता विष-सरमा द्वारा साम्प्रदायिक भावनाएं भडकाने और पालतू समाचार एजेंसी एएनआई के जरिये मणिपुर घटना में

किसी अब्दुल का नाम जोड़कर झूठी खबर फैलवाने के साथ जोड़कर पढ़ने और देखने से इस विचार-गिरोह के इरादे ज्यादा साफ़ नजर आते हैं और वह यह हैं कि 2024 के पहले केंचुली बदली जा रही है.

अब लिजलिजाते राष्ट्रवाद के ढीले पड़े मुखौटे को नोंचकर फेंका जा रहा है, उसकी जगह शुद्ध साम्प्रदायिक हिन्दुत्व मतलब इधर मुस्लिम विरोध, उधर मनुस्मृति सम्मत राज विधान के एजेंडे पर लौटा जा रहा है.

ब्रिटेन की संसद से लेकर फ्रांस सहित दुनिया के अखबारों के सम्पादकीयों तक में मणिपुर की लज्जा छप रही है, मगर अब दुनिया में देश की इज्जत खराब होने का स्यापा नहीं किया जा रहा.

भारत में अमरीका का राजदूत एरिक गारसेत्ती भारत में ही पत्रकार वार्ता लेकर मणिपुर में मदद करने की पेशकश तक कर रहा है और ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी

और उसकी सरकार इस कूटनीतिक कदाचरण और बेहूदगी की निंदा तक करने का साहस नहीं जुटा पा रही है. आजादी की 75वीं सालगिरह के ठीक एक महीने पहले के हिन्दुस्तान की यह स्थिति गंभीर और दुखद है.

इसके नतीजे क्या होंगे? यह कब और कहाँ जाकर रुकेगा? क्या सफाया किये जाने का नस्लीय नरसंहार का आव्हान सिर्फ कुकियों के सफाए तक ही महदूद रहेगा?

ये वे सवाल हैं, जो हर भारतीय की चिंता में हैं. मणिपुर की प्रतिक्रिया में मिजोरम में बसे मैतैई समुदाय के नागरिकों का अपनी हिफाजत के लिए शरणार्थी बनने की स्थिति तक पहुँच जाने की खबरें इस चिंता को और बढाती हैं.

मणिपुर की हिंसा के विरुद्ध देश भर में हुयी विरोध कार्यवाहियां इसी क्षोभ और चिंता का इजहार हैं. लोग समझ गए हैं कि देश और उसमे बसी जनता की

एकता की सलामती के लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, इस सरकार पर तो बिलकुल भी नहीं रहा जा सकता.

(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं- संपर्क: 94250-06716)

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