इच्छाओं की झोली का रहस्य?
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी. इसी दरम्यान किसी फ़क़ीर ने सम्राट से भिक्षा माँगी थी. सम्राट ने उससे कहा-
“जो भी चाहते हो, माँग लो.” क्योंकि दिन के प्रथम याचक की किसी भी इच्छा को पूरा करने का उसका नियम था. उस फ़क़ीर ने अपने छोटे से भिक्षा-पात्र
को आगे बढ़ाया और कहा- “बस, इसे स्वर्ण-मुद्राओं से भर दें.” सम्राट ने सोचा, “इससे सरल बात और क्या हो सकती है?”
लेकिन जब उस भिक्षा-पात्र में स्वर्ण मुद्रायें डालीं गईं, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असम्भव था क्योंकि वह तो जादुई था.
जितनी अधिक मुद्रायें उसमें डाली गई, उतना ही अधिक वह ख़ाली होता चला गया. सम्राट ने अपने सारे ख़ज़ाने ख़ाली करा दिये लेकिन भिक्षुक का पात्र ख़ाली ही रहा.
उसके पास जो कुछ भी था सभी उस पात्र में डाल दिया, लेकिन अद्भुत पात्र अभी भी ख़ाली का ख़ाली ही रहा.
तब उस सम्राट ने कहा, “हे भिक्षु, यह तुम्हारा पात्र साधारण नहीं हैं, उसे भरना मेरी सामर्थ्य के बाहर है. क्या मैं पूछ सकता हूँ कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है?
वह फकीर ज़ौर से हँस कर बोला- “इस में कोई विशेष रहस्य नहीं हैं. मरघट घाट से निकल रहा था कि मनुष्य की खोपड़ी मिल गयी, उससे ही यह भिक्षा पात्र बना है.
मनुष्य की खोपड़ी कभी भरी नहीं, इसलिये यह भिक्षा पात्र कभी नहीं भरा जा सकता है. धन से, पद से, ज्ञान से-किसी से भी भरो, यह ख़ाली ही रहेंगी,
क्योंकि इन चीज़ों से भरनें के लिये यह बनी ही नहीं है. मनुष्य की द्रव्य भूख अन्तहीन है और इसी मृग तृष्णा में दौड़ते-दौड़ते उसका ही अन्त हो जाता है.
आत्म-ज्ञान के मूल सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है. हृदय की इच्छायें कुछ भी पाकर शान्त नहीं होती हैं
क्योंकि ह्रदय तो परमात्मा को पाने के लिये बना है. “परमात्मा के अतिरिक्त और कहीं सन्तुष्टि नहीं, उसके सिवाय और कुछ भी मनुष्य के हृदय को भरनें में असमर्थ है.”
(अभिप्राय: ईच्छाएं कम कीजिए, मन की कोठरी ख़ाली और साफ़ कीजिए, तभी तो ईश्वर का वहां निवास होगा..)
{By: अनीश कुमार ओझा}