BY– NAVNATH MISHRA
मानव और पशुओं में एक भिन्नता पाई जाती है और वह भिन्नता विवेक शीलता के कारण है जो केवल मानवों में ही पाया जाता है। इस कारण पशुओ में जहाँ निरपेक्ष अधिकार पाये जाते हैं अपनी वासना की पूर्ति हेतु ,वहीं मानवो में अधिकारों पर कर्तव्यों का बंधन होता है। उन कर्तव्यों के कारण हम,परिवार, समाज का निर्माण करते हैं ना की स्वार्थ या वासना हेतु पशुअत झुण्ड का।
जब हम मानव संस्कृति का निरीक्षण करते हैंं तो पाते हैं कि हम अपने अधिकारो से कर्तव्यों की तरफ बढे, हम स्वार्थ से नैतिकता की दिशा में अग्रसर होने लगे। इसमें हमारे दार्शनिकोों ने अहम भूमिका निभाई। चाहे पश्चिमी दार्शनिक ईसा, मूसा या मोहम्मद हों या भारतीय विद्वान मनु, बुद्ध, या महावीर सबने हमारे पशुअत अधिकारोंं पर कर्तव्यों की बंदिश लगाई और झुण्ड को समाज का रूप देने का प्रयास किया। आधुनिक दौर में गांधी इन सबकी संयुक्त अभिव्यक्ति थे, जो कि वासनाओं और निजी स्वच्छंदताओं पर नैतिक बंधन को स्वीकार करते थे।
जब हम पश्चिमी और भारतीय समाज में तुलना करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम में अधिकार कर्तव्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। अतः उनकी राजनीतिक संस्थाएं उसी परिपेक्ष में न्याय करती है। यदि वहाँ विवाह जैसी परम्परा है भी तो वह दो व्यक्तियों के मध्य म्यूचुअल कांटेक्ट मात्र है, पति तब तक है जब तक वह पत्नी के अधिकार या स्वार्थ की पूर्ति करता है या आंनद देता है, ठीक वही बात पत्नी पर भी लागू होती है।
अर्थात वहा विवाह केवल(persuit of individual happiness) वासना पर आधारित है। जबकि भारतीय समाज में व्यक्तिगत अधिकारो की बजाये सामाजिक, पारिवारिक कर्तव्य संबंध जोड़ते हैं। विवाह केवल वासना की पूर्ती हेतु नहीं है। (म्यूच्यूअल कॉन्ट्रैक्ट) नहीं है। जी
वन साथी सुख दुःख दोनों का साथी है हमारे कर्तव्य उसे सुखी करना है और उसके दुखों में साथ निभाना भी। विवाह जैसी परम्परा में कई रिस्ते कर्तव्यों को करते नज़र आते हैं जैसे जेष्ठ, देवर, ससुर ,साला, साली सबकी भूमिका विवाह के बाद भी आजीवन बानी रहती है और हमे इनके प्रति कर्तव्यों का निर्वाहन करना पड़ता है,यह प्रवृति पशुओं में नहीं पाई जाती।
गांधी का न्याय शाश्त्र भी वासनाओं पर कर्तव्यों और दायित्वों हेतु बंधन लगाता है। मानव के यही गुण उसे पशुओं से अलग करते हैं जहाँ त्याग और समर्पण रिश्तों के आधार हैं ना की sexual pleasure।
यदि हम हालिया न्यायिक निर्णयों जैसे 377 और 497 के विलोपन को देखें और जजों के विचारों का मूल्यांकन करें तो वह पश्चिम सापेक्ष अधिक है न की पूरब के और न्यायाधीशों की सोच भी मध्यकालीन पूंजीवादी व्यक्तिवादी आंग्लअमेरिकी न्याय शास्त्र से प्रभावित है जैसे–
1To be human involves the ability to fulfil sexual desire in the persuit of happiness- chandrachud.
2-पत्नी पति की सम्पति नहीं। इंदु मल्होत्रा।
आलोचना-
1-सारीरिक सुख पशुओं के persuit ऑफ़ happiness(आनंद की खोज)को दर्शाता है ना की मानवो के सुख इसी से तय होंगे। न्यायधीश महोदय को यह समझना होगा।
2-पत्नी यदि पति की सम्पति या साधन नहीं है तो क्या पति उसकी सम्पति या साधन है जो उसके लिए श्रम करता है या पूंजी कमाता है।
3 अवैध संबंध हमें अपने कर्तव्यों से विमुख करेंगे, और कुछ प्रश्न उभरेंगे जैसे-
A सीमा पर तैनात सिपाही की पत्नी क्या नाज़ायज़ सम्बन्ध नहीं बनाएगी। फिर वह किस persuit ऑफ़ हैप्पीनेस के लिए सीमा पर खड़ा होगा।?
B क्या persuit ऑफ़ happiness के लिये कोई बेटी अपने पिता से सम्बन्ध बना सकती है?
C persuit ऑफ़ happiness से यदि कोई औलाद पैदा होता है तो वह किस पिता का वारिश होगा जैविक या विधिक का?
D अनुच्छेद 21 की सीमा क्या है,? क्या यह अनंत पशुत अधिकार प्रदान करेगी या भारतीय समाज के अनुकूल इस पर मर्यादाएं आरोपित होंगी।
कहीं ऐसा न हो की न्यायाधीश हमे अनुच्छेद 21 के तहत इतनी स्वतंत्रता न प्रदान कर देे कि हम प्राकृतिक अवस्था में लौट जाएं अन्य पशुओं की तरह।
अतः हमारे न्याय शास्त्रियों को न्याय करने से पूर्व गांधी की नैतिकता को और अपने समाज को समझने की आवश्यकता है, न्याय की परभाषा सदैव पश्चिम सापेक्ष नहीं हो सकती बेन्थमवादी नहीं हो सकती उसे पूर्व सापेक्ष बनाना होगा जहाँ सब कर्तव्यों और दायित्वों से बँधे हो , जुर्म करने या मानवीय कर्तव्य तोड़ने पर दंड हो। चाहे स्त्री हो या पुरुष पशुवत स्वछँदता को स्वतंत्रता की संज्ञा नहीं दी जा सकती। स्वतंत्रता/अधिकार कर्तव्य सापेक्ष होनी चाहिए स्वच्छंदता पशुअत नहीं तभी गांधीवादी विचारों का अस्तित्व बचा रहेगा।
सरकार ऐसे स्वच्छंद निर्णयों पर रोक लगाए विधयकों या अध्यादेशों के जरिए,यदि ऐसा नहीं करती तो इसका साफ़ अर्थ यह है की सरकार पूंजीवादी पश्चिमी विचारों की समर्थक है जो केवल श्रमिक और पूंजीपति के ही संबंधो को बनाये रखना चाहती है और इसके लिए पारिवारिक संबंध बाधा है। भारतीय मूल्यों की, परिवार रुपी संगठन की रक्षा करने से ही गांधी के सपनो का भारत निखरेगा और गान्धीवादी मूल्यों की रक्षा होगी ।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यवहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति ‘द फायर ‘ उत्तरदाई नहीं है। इस आलेख में लेखक के विचारों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।