दुर्दशा दिल्ली की: दिल्ली का नक्शा बदलें या हालात?


BY-  रवि भटनागर


भारत की राजधानी महानगर दिल्ली राज्य और शहर के बीच अधर में लटका हुआ एक अभिशप्त शहर लगने लगा है।

भारतीय संसद भवन व राष्ट्रपति के निवास के चारों ओर बसा ये महानगर और राज्य अपना भविष्य देख पाने और समझ पाने में नाकाम सा हो रहा है।

अब यह चर्चा गर्म है कि दिल्ली का नक्शा ही बदल दिया जाये। इमारतों का पुनरुद्धार होना तो समझ में आता है पर सब कुछ बदलने की सोच से पहले वहाँ के निवासियों की बेहतरी कैसे हो यह सोचना ज़्यादा ज़रूरी है।

आज़ादी के बाद पूरे भारत के लोगों को इस शहर ने बहुत प्यार से अपनाया अपने अन्दर समावेश किया। हज़ारों-लाखों व्यापारी, नौकरी पेशा, नेता, मन्त्री जो कुछ समय के लिये यहाँ आये, यहीं के हो के रह गये। पाकिस्तान से भी आये हज़ारों परिवारों को दिल्ली में भी बसाया गया।

वर्गों में बँटा दिल्ली कई राज्यों से आकर बसने वालों को अब सम्हाल पाने में अक्षम हो चुका है। मैं भी यहाँ ही पला बढ़ा।

मैंने छोटी सी नई दिल्ली और ख़ूब बड़े से विस्तार वाली पुरानी दिल्ली की रंगत, रूप और नक्शे को बदलते हुए देखा है।

दिल्ली में अनेकों राज्यों से रोज़ी की तलाश में पलायन करके आये बहुत से लोग इस शहर को गले लगाने के बजाय यहाँ अपने अपने राज्यों की पहचान ढूंढने की कोशिश में इस शहर के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाए। जैसा देस, वैसा भेस की कहावत यहाँ चरितार्थ नहीं हो पाई।

राजनीति जहाँ पर आवश्यकता से अधिक हावी हो, वर्चस्व की जहाँ बहसें हों वहाँ पर चौमुखी विकास हो ही नहीं सकता।

सभी राज्यों के बड़े शहरों का यही दुर्भाग्य रहा है और विशेष कर राजधानियों का। सही रूप से निष्पक्ष हो कर देखें और समझें तो इसका कारण हमारे गाँव और क़स्बों में समुचित विकास की कमी रही।

कृषि, घरेलू और लघु उद्योगों के विकास और विस्तार पर सरकार की लापरवाही ने ही पलायन को बढ़ावा दिया।

मैंने स्वयं देखे हैं बेतुके ढंग से उगते, पनपते हुये उपनगर। जो फिर सरकार द्वारा मान्य हो जाते हैं बिना विकास के ही।

ऐसे पनपते इलाकों के छोटे-छोटे से घरों में झंडें भी लाल, तिरंगे, नीले और केसरिया व अन्य देखे जा सकते हैं। चुनाव के दिनों में वहाँ पर कुछ ज़्यादा ही रौनक और चहल पहल देखी जाती है।

दिल्ली के हित में सोचें तो पहला सवाल तो यही उठता है कि इसे राज्य बनाने का औचित्य क्या केवल राजनीतिक ही था या सामाजिक भी? और राज्य भी अपूर्ण।

चुने हुए प्रतिनिधियों को मात्र अपनी सोच रखने का अधिकार ही है, या कुछ छोटे-छोटे उद्दम भर कर लेने का। फैसले लेने के अधिकार उप राज्यपाल के पास है जो केन्द्र के अधीन है।

और एक महानगर को ही राज्य बनाना था तो फिर नगर पालिकाओं का औचित्य भी क्या रह गया सिवाय व्यय बढ़ाने के।

ज़रा सोचिये दिल्ली इस देश की राजधानी है किसी उपन्यासकार के उपन्यास की पात्र या किसी नगर सेठ की वैशाली नहीं है।

और ठीक यही हाल इस देश के हर बड़े शहर का भी हो रहा है। अब विकास केवल और केवल ज़मीनी ही चाहिए और वो भी देश के हर कोने में।


लेखक स्वतंत्र विचारक, स्वराज इंडिया पार्टी के संस्थापक सदस्य हैं।


 

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