क्या करें, क्या ना करें या कुछ ना करें


BY- रवि भटनागर


——————–। मेरा संसदीय भारत ।—————-

ये मेरा भारत है। और यहाँ संसद ही सर्वोपरी है। बाकी तीन स्तंभ मज़बूत दिखते तो हैं, पर उनका पूरी तरह स्वस्थ होना, शंका के घेरे में ही रहता है।

एक बात और कि कोई कितनी भी डींगें हाँक ले, यहाँ जाति और धर्म दोबारा से सर्वोपरी हो कर, धर्मनिरपेक्षता को जीभ चिढ़ा रहे हैं। कारण क्या हैं व इसके परिणाम क्या हो रहे हैं, सबके व्यक्तिगत तजुर्बे या मान्यताएं ही तय करते रहेंगे।

पिछली सदी के नौवें दशक तक, बदलते हुये समय और हालातों के साथ ही, अधिकारों और अस्तित्वों की बहसों में, धर्म और जातियों की कट्टरता, तेज़ी से पिघलती सी लगने लगी थी।

हालात देश की बेहतरी और वैश्वीकरण के हित में लगने लगे थे। पर पिछली सदी के अंतिम ही दशक में, ज़लज़लों की तरह, देश में मंडल और कमंडल की बहसों ने संपूर्ण परिदृश्य ही बदल डाला। सामाजिक सरोकार, राजनीति के तीखे हथियार बन गये।

फिर भी, बावजूद धर्म और जाति के मसलों के, जैसे तैसे देश आगे तो बढ़ ही रहा था। सीएजी की रिपोर्ट के नतीजतन, अन्ना आंदोलन ने देश को आंदोलित कर, पूरी तरह से झकझोर दिया।

भ्रष्टाचार के भूत को जड़ से ख़त्म कर डालने का भ्रम, व व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ते, तेज़ी से चलते हुये कदम कहीं और मुड़ते देखे गये। वैकल्पिक राजनीति की सोच, जो अपनी जड़ें जमाने की पुरज़ोर कोशिशों में थी, वो भी राजनीतिक विवशताओं के आगे घुटने टेकती सी लगी।

राजनीति के खेल निराले होते हैं, अन्नाजी के नेतृत्व में खोदी गई ज़मीन पर, बीज तो आम आदमी पार्टी ने बोये और फिर फसल काटने का जज़्बा या जुगाड़, “बीजेपी” ने दिखाया, दिल्ली राज्य के बिना। और, जन लोकपाल के नाम का झुनझुना, कहीं और जा छुपा, शायद, सबके विकास के नारों और बादलों के पीछे।

जिस भ्रष्टाचार के नाम से ये कथा शुरू हुई थी, उसका बनना, बिगड़ना भी क्या था। रंग रूप ही बदलता रहा है सदियों से, जड़ें बहुत गहरी हैं। जो लड़े इसके ख़िलाफ़, वो नकार दिये गये, जो ईमानदार रहे, वह बेवक़ूफ़ कहलाये, और भुला दिये गये।

ईमानदारी का बुख़ार ही प्रगति की रफ्तार को धीमा करता है, ऐसा भी माना जाता रहा। ऐसी ही सोच, आज़ादी से पहले भी थी और यही आज़ादी के बाद भी रही है।

आज, राजनीति फिर से, धर्मों और जातियों के पुराने गुणा भाग के मचान पर तैनात है। बहुत मज़बूत सरकार, जो पाँच साल पहले बनी थी, दोबारा, और ताकतवर हो कर मोर्चा संभाले बैठी है।

एसे में देश की ज्वलंत समस्याओं के विपरीत, सरकार के निश्चित एजेंडे, सोच और कार्यक्रम में जो भी तारतम्य खोजेगा, उसकी नादानी ही होगी।

पहले बजट सत्र में ही देख लिया न बजट एक झटके में पास हो कर सरक लिया। और अनेक बिल भी पास होते जा रहे हैं। बिल ऐसे पास हो रहे हैं जैसे बेकरी में से केक निकाल निकाल कर सजाये जा रहे हों।

विपक्ष के नेता, अपनी शंकाओं के साथ ही तिलमिलाते रह जाँये, और मंत्रियों के चेहरों पर जंग जीतने जैसी मुस्कानें दिखें, यह अद्भुत नज़ारे पहले कब कब देखे थे?

समस्याओं की गंभीरता तय करने का हक भी केवल मज़बूत सरकारों को ही तो है। जनता के लिये तो सैंकड़ो योजनाओं से भरप टोकरा है ही।

यह बात भी हम समझते हैं कि देश में बाढ़ के बढ़ते स्तर और देश की लगातार ही गिरती जा रही आर्थिक व्यवस्था में कोई संबंध ही नहीं है।

बढ़ती बाढ़ का जायज़ा तो नेता हैलीकॉप्टरों में बैठ कर लेते रहे हैं। पर आर्थिक दुर्दशा के हश्र को देखने की दूरबीन देखने की फुर्सत ही कहाँ है? इसका नतीजा क्या होगा, कौन जाने ?

यदि फिर भी, किसी को देश भर के हालात का आइना ही देखना हो तो एक दौरा नई दिल्ली के जंतर मंतर का लगा लें।

ग़ुरबत के मारे किसान, मज़दूर, जवान, बेरोज़गार, कलाकार, कर्मचारी, हक और क़ायदे कानूनों के मारे लोग, सब यहीं देखने को मिल जायेंगे।

यहाँ पूरे देश से आये सताये बहकाये या उकसाये, क़िस्म क़िस्म के नुमायंदे देखे जा सकते हैं। ये सभी लोग एक मिनी हिंदुस्तान और उसकी झलक दिखलाते से नज़र आते हैं।


लेखक स्वराज इंडिया पार्टी के संस्थापक सदस्य हैं।


 

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