BY– रवि भटनागर
अपने देश के राजनीतिक स्वरूप और मिज़ाज को विश्व का एक अजूबा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। सारे ही राजनीतिक दल, दलदल में धंसे होते हुऐ भी नाटकीयता छोड़ने को तैयार नहीं हैं। उनके लिऐ सर्वोपरि यही है कि वे येन केन प्रकारेण सत्ता हथियायें या सत्ता के निकट अधिक से अधिक जा पाँयें। मजबूर भी हों तो विपक्ष में रह कर अपने हित साध सकें।
तटस्थ भाव से समझें तो हम यही पायेंगे कि 1974 से पहले का भारत, पाकिस्तान और चीन से युद्धों के बावजूद भी लगातार विकास यात्रा पर अग्रसर रहा। इस चहुमुखी विकास की दर या दिशा पर तो सवाल उठाये जा सकते हैं, पर देश नये आयाम छूने की दिशा में आगे से आगे ही बढ़ता रहा इसमें कोई भी शक नहीं है ऐसी आम मान्यता होगी।
बड़ी राजनीतिक हलचल और उठा पटक की शुरुआत 1974 और इसके बाद के दौर में दिखाई दी। इस दौर के बारे में अथाह साहित्य और अनेकों विचार, लेखों और पुस्तकों के रुप में उपलब्ध हैं। सभी लेखक, राजनीतिज्ञ, राजनीतिक विश्लेषक और विचारक अपनी अपनी प्रतिबद्धताओं से बंधे थे और शायद आज भी उससे अलग सोच नहीं पायेंगे। अतः किसी को भी सही या गलत ठहराने का कोई औचित्य नहीं है।
आपात काल घोषित करने से पहले भी देश के हालात विचलित कर देने वाले थे। राजनीतिक गतिविधियाँ, ज़मीन, सत्ता के गलियारों और कोर्ट कचहरी से कहीँ आगे बढ़ कर विकराल आंदोलन बन चुकी थीं।
जे पी आंदोलन कुछ महिनों के अंदर ही विशाल रुप ले चुका था, जो किसी भी माने में अहिंसक नहीं रह गया था। समस्त राजनीतिक विपक्ष और पुराने कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता उस आंदोलन से जुड़ चुके थे। अनेक मजदूर नेता, संगठनों के कार्यकर्ता भी भीड़ बन कर कानून अपने हाथ में ले चुके थे। जवाब में खूब गिरफ्तारियां होती रहीं और भी बहुत कुछ हुआ।
राष्ट्रपति शासन से अधिक कारगर तत्कालीन सरकार को आपातकाल की घोषणा करना लगा। जिसे सरकार को 21 माह में ही वापस लेना पड़ा और चुनाव करवाना मजबूरी हो गया। आपातकाल से पहले और आपातकाल के दौरान बहुत से कृत्य समाजिक तौर पर अनुचित और ज़्यादतियों से भरे महसूस किये गये।
अनेक सच्चे और झूठे किस्से आज भी कहानियों की तरह बयान किये जाते हैं। साठ, पैंसठ साल से अधिक उम्र के अनेक व्यक्ति अपने को जय प्रकाश आंदोलन से जुड़ा हुआ जता कर नमक मिर्च लगे प्रकरण परोसते हुये कुछ विशेष भी महसूस भी करते होंगे।
ऐतिहासिक सत्य यही है कि आपातकाल के समाप्त होने तक सारा विपक्ष एक हो अपने अपने अस्तित्वों को मिटाकर जनता पार्टी के झंडे तले सत्ता प्राप्त करने में कामयाब हो गया।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पँडित दीन दयाल उपाध्याय जी की जनसंघ पार्टी केवल एक व्यक्ति प्रोफेसर बलराज मधोक तक सिमट गई। सबसे अहम और चर्चा में रहा आरएसएस भी, पर्दे के पीछे चला गया। पर जनसंघ को छोड़ कर गये लोग आरएसएस से अपने संबंध तोड़ नहीं पाये।
जय प्रकाश नारायण जी की अगुआई में जनसंघ और राम मनोहर लोहिया जी के नाम और विचारधारा से प्रेरित नेता खुल कर सामने आ गये। विभिन्न प्रकार की मज़दूर यूनियन एवं अन्य संस्थाओं ने भी एक जुट हो कर इस नये गुट का खुल कर साथ दिया।
जेलों से छूटे हज़ारों बूढ़े जवान नेता और कहीँ कहीं बाहुबलियों और अराजक तत्वों ने भी राजनीति को आत्मसात कर सत्ता से अपनी नज़दीकियाँ बढ़़ा लीं।
प्रधानमंत्री पद के दावेदार अधिक थे जय प्रकाश नारायण जी ही एक नेता थे जिनकी रज़ामंदी से फैसले सुगम हो पाते थे। मोरारजी भाई देसाई जी का चयन प्रधानमंत्री के पद के लिये भी एसे ही हुआ।
जनता पार्टी के अस्तित्व पर जेपी साहब का प्रभाव इस क़दर था कि जब वे अस्वस्थ होकर जसलोक अस्पताल में भेजे गये तो सरकार अहम फैसले लेने से पहले उनकी रज़ामन्दी अवश्य लेती थी। उनकी मृत्यु के साथ ही समीकरण बदलने शुरू हुऐ और टूट फूट के साथ ही सरकार भी धराशाई हो गई। जनसंघ के घटक ने ‘बीजेपी’ के नाम से नई पार्टी बना ली जिसमें कई अन्य लोग भी जुड़ गये। बिखराव का दौर चलता ही रहा और समय के साथ साथ टूटते बिखरते नये-नये दलों के गठन होते चले गये।
कांग्रेस सरकार के दूसरे दौर (1980-89 ) के दौरान विपक्षी दलों के मुद्दों में मूल रूप से बदलाव आ गया। भ्रष्टाचार ने भी चुनावी मुद्दे का रुप ले लिया। राजनीति, अब धर्म, जाति, पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के धड़ों में बँटने लगी । उनके लिऐ सर्वोपरि यही रहा कि वे जल्दी सत्ता के निकट अधिक से अधिक जा पाँयें। मजबूर भी हों तो विपक्ष में रह कर अपने हित साध सके।
मुझे याद है, कि 1988 में मुझे एक कार्यशाला में तिरुवनंतपुरम जाना पड़ा। वहीं ज्ञात हुआ कि शहर में राजीव गांधी जी और कांसी राम जी की रैली का आयोजन एक दिन के अंतराल से है। मुझे हैरानी इसी बात से हुई कि दोनों ही रैलियों में जन सैलाब लगभग बराबर ही था। ऐसे ही बदले हुऐ नये समीकरण राजनीति पर हावी होते जा रहे थे।
यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि एक समय प्रधानमंत्री रहे श्री वी पी सिंह ने अपने घोषणा पत्र में दावा किया कि वे पद संभालने के बाद संविधान के प्रावधान के अनुसार पिछड़े वर्गों के हित में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करवायेंगे। उनके ऐसा करते ही,देश भर के शहरों में खिलाफत का माहौल बना। लोकसभा में मेज़ें थपथपा कर घोषणा का एक मत से स्वागत किया गया और बाहर गली चौराहों पर दूसरी राजनीति देखी गई। इसके जवाब में ही शुरू हूई श्री अडवाणी जी के नेतृत्व में श्री राम रथ यात्रा। जाति और धर्म की खुली राजनीति का सूत्रपात यहीं से माना जा सकता है।
जनता दल के बिखराव, जाति के आधार पर राजनीति और उसके जवाब में धार्मिक उन्माद का उपयोग सर्वोपरि हो गया। जाति, धर्म के आधार पर हिस्से बाँट और बेबुनियाद आरक्षण के चुनावी वादों के दौर ने राजनीतिक दलों की बुनियाद को ही बदल दिया। हमारे संविधान और बाद के दिशानिर्देशों में आरक्षण की पूरी प्रक्रियायें स्पष्ट और पर्याप्त हैं, कमी मात्र उसके क्रियान्वयन में ही रही वरना आज यह विषय इतना महत्वपूर्ण ही नहीं रहता।
यही हाल धर्म का भी हुआ। जो विषय व्यक्तिगत आस्था का था वह ढोल नगाड़ों के साथ राजनीतिक लाभ के लिए सार्वजनिक होने लगा। आज हम एसे ही दौर की पराकाष्ठा देख रहे हैं।
कुल मिलाकर देखें, तो आज की राजनीतिक सोच कार्य क्षमता दिखाने से अधिक सत्ता को पैंतरेबाज़ियों से हथियाने के जुगाड़ से अधिक कुछ भी नहीं लगती।
औज़ारों और हथियारों के रूप में जाति, धर्म, आस्थाओं, और मान्यताओं का खुल कर इस्तेमाल हो रहा है। एक दूसरे को दोष देकर हम बेहतर दिखना चाहते हैं।
यही उपयुक्त समय है कि जब हम सभी इन संकीर्णताओं से ऊपर उठ कर सोचें, नई दिशा पर अपनी नज़र टिकायें, देखें और जनता को भी दिखाने का भरसक प्रयत्न करें। व्यवस्था परिवर्तन अब देश और समाज के चँहुमुखी उत्थान के लिये नितांत आवश्यक है।
इतिहास हो चुके नेताओं के नाम पर राजनीति बंद कर देश की मूल समस्याओं के समाधान की प्रक्रिया पर राजनीति सिमटनी ही चाहिए। चुनाव व्यक्ति की जात धर्म से ऊपर उठ कर व्यक्ति की काबलियत पर ही लडे़ जांयें तभी बेहतर कल की उम्मीद की जा सकती है। यही सही राह है, और यही एक मात्र विकल्प भी।
लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा गुरुग्राम में रहते हैं।