अभिन्न अंग की शल्यक्रिया: जम्मू और कश्मीर- धारा 370


BY- रवि भटनागर


पिछले कुछ दिन सरकारी हल्कों की दौड़-धूप ने इतना हैरान परेशान किया कि एक उंगली दाँत में दबी रही और बाकी सर खुजाने में ही व्यस्त रहीं।

फौज की चहल-पहल, अमरनाथ यात्रियों के प्रस्थान पर रोक, सैलानियों व छात्रों को वादी छोड़ने के आदेश, सब एक साथ ही आ गये। अंदेशा हुआ कि कुछ गंभीर होने का ख़तरा है पर कुछ अशुभ हुआ नहीं।

और जो हुआ वह यह था कि संसद में पिटारा खुला तो धारा 370 नदारद। जम्मू कश्मीर का ऑपरेशन हो गया। अटूट, अभिन्न अंग के दो भाग कर के, केंद्र सरकार ने स्वयं केंद्र सरकार से ही जोड़ दिये गये। जम्मू और कश्मीर दिल्ली की और लद्दाख, पुडुचेरी की तर्ज़ पर।

दो दिन से राज्य सभा और लोक सभा में ख़ूब जम कर बहस इन्हीं मुद्दों को लेकर रही कितने कितनों ने क़ायदों को बक़ायदा किया पिछले सत्तर बरसों में। सब एक दूसरे को बेपर्दा करने पर उतारू रहे। चर्चायें सुनीं तो लगा कि किसी यूनिवर्सिटी के इतिहास की फेकल्टी में मोर्डर्न हिस्ट्री पर सेमिनार चल रही है।

कभी-कभी लगता है कि हमारी मैमोरी में से अगर आज़ादी हासिल करने और उसके कुछ वर्षों के बाद का हिस्सा ग़ायब हो जाये तो बहुत कुछ आसान हो जाये।

राजनीतिक दल हर बार इस दौर के मसलों पर इतना उलझ जाते हैं कि आज की सारी समस्यायें भूल कर वहीं पर जा कर टिक जाते हैं। आरोप-प्रत्यारोप एक-दूसरे को छोटा बताने और जताने की होड़, सबको ही छोटा बना डालती है।

सरकारें आती-जाती रहती हैं, कमियाँ भी रहती हैं, ग़लतियाँ भी होती हैं। पर पहले क्या-क्या और क्यों हुआ, इस पर बहस का औचित्य भी क्या है आज। ह

मारा सरकार में जीत कर आने का अर्थ यही है कि हम देश हित में और बेहतर करें। अब गाँधी, नेहरु या पटेल को एक दूसरे से छोटा या बहुत बड़ा दिखाने वाले यह भी तो सोचें कि इतिहास तो वे स्वयं भी एक न एक दिन हो ही जायेंगे।

देश के कई शहरों में कल गुलाल भी उड़ा ढो़ल और नगाड़े भी बजे, पटाखे भी चले। टीवी पर ख़ूब नाच-नाच कर उल्लास मनाते हुये देखा।

जो बरसों से इसके हटाये जाने का इंतजार कर रहे थे, वे ख़ुश अवश्य होंगे। ख़ुशियाँ भी तो ऐसे ही मनती हैं। पर वो जो इस देश के सत्तर सालों से अटूट और अभिन्न अंग रहे हैं वे दो दिन में कैसे रहे कौन जाने ?

दलीलें दी गईं हैं कि जम्मू और कश्मीर इन दो धाराओं के कारण बहुत सारी सुविधाओं और विकास से वंचित रहा। ठीक ही होगा।

अब सब कुछ वैसा ही हो गया है जो बहुत से बरसों से चाह रहे थे। पर जिनके लिये चाह रहे थे वे भी कुछ चाह रहे हैं ये कैसे जानें? ये अभिन्न अंग, भिन्न से क्यों लग रहे हैं ?

अब इन सब हलों के सवालों को ढूँढ़ना भी शुरू कर दिया जाये तो बेहतर होगा। हम ज्ञान पर अपना एकाधिकार ही समझते रहे तो, हाथ मलते रह जायेंगे। इन बड़े सवालों और उनके हलों को तलाशने में सभी पुरानी समस्याएं छुप गईं सी लगती हैं।

और दूसरी तरफ, असमान्य रूप से गिरती जा रही आर्थिक व्यवस्था भी है जो सरकार के ही और गंभीर रुख़ के इंतजार में है


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता तथा स्वराज इंडिया पार्टी के संस्थापक सदस्य हैं।


 

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