राजनीति के चक्र: अपाहिज होती संवेदनशीलता


BY- रवि भटनागर


राजनीति की दलदल में सामाजिक सरोकार की सभी व्यवस्थाएं, धरातल में गहरी धंस चुकीं हैं। यह विडम्बना है कि हैवानियत के तमाम मसलों पर इंसानियत के तथाकथित पैरोकार, पीढ़ितों की जात-बिरादरी और धर्म जान कर ही, सधे हुये शब्दों में अपनी-अपनी प्रतिक्रियाँऐ देते हैं।

लगभग यही हाल, कानून व्यवस्था के रखवालों का भी है। वे अपनी कार्यवाहियाँ निर्विघ्नता से कर नहीं कर पाते या कर ही नहीं सकते।

उनके सर पर जो भी राजनीतिक व्यवस्था है उन्हें उसका ध्यान रखना ज़रुरी होता है। उन्हें यह समझना होता है कि कानूनी तौर पर सही हो जाना, उन्हें कितना मँहगा पड़ सकता है।

एसे पशोपेश में वे पूरे हथियारों से लैस हो कर भी निहत्थों जैसे ही बने रहते हैं। इसलिए केवल उन को ही पूरी तरह दोषी मान लेना भी उचित नहीं है।

एक अरसे से लगभग सभी राजनीतिक दल अपनी सारी ही गतिविधियों में धर्म और जाति के अंक गणित बैठा कर चालें चलते रहे हैं।

चुनावों में भी उन्हीं रथों पर सवार हो कर लड़ते जीतते या हारते रहे हैं। इसका नतीजा यह होता है कि वे अपने ही समर्थकों द्वारा हो रही नाजायज़ गतिविधियाँ अनदेखी कर देते हैं।

यह उनकी मजबूरी ही होती है। अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने व अपने जुटे समर्थन को बनाये रखने का यह सबसे आसान तरीका उन्हें सूझता है।

ऐसे ही अनेकों कारण हैं जिनके चलते जनता सरकार की ईमानदार नियत पर भी विश्वास नहीं कर पाती। दूसरी ओर मुख्यमन्त्रियों, मंत्रियों, सचिवों, विभागीय अफसरों व अन्य सभी अधिकारियों की श्रंखला की मानसिकता एक ही जैसी हो ऐसा संभव नहीं है।

ना ही उन सबकी कार्यक्षमतायें एक सी होने की संभावना हो सकती है। ऐसे में सर्वोपरी नेतृत्व की वैचारिक क्षमता और दक्षता ही तय कर पाती है कि उचित कदमों निर्णयों के क्रियान्वयन और निष्पादन की गति कितनी तेज़ और कारगर हो।

बड़े बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों से जो भी भावनायें विचार और संकल्पों का उद्घाटन देश का नेतृत्व करता है, सरकार के पूरे तंत्र को उसकी अनुपालना करते हुये दिखना भी ज़रूरी है।

बड़े-बड़े नामों के जब दर्शन छोटे से होने लगते हैं तो विश्वास डगमगा जाता है। शीर्ष नेतृत्व की प्रथम दो पंक्तियों के आचार, विचार व उनके ही सामाजिक व्यवहार उनके समर्थकों की दिशा और दशा भी तय करते हैं।

अगर उनमें संवेदनशीलता ही प्रदर्शित न हो पाये, तो कुछ भी काबू में रखना मुश्किल हो जाता है।

एक सौ तीस करोड़ की जनसंख्या वाले विशाल देश में ये संभव ही नहीं है सब कुछ समयबद्ध तरीके से संवर जाये। पर देश के सभी पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक दलों को संजीदा होना बहुत ज़रूरी है।

विशेष कर सरकार से संबद्ध सभी नेताओं और सरकारी तंत्र को अपने कर्म और व्यवहार में संवेदनशीलता प्रदर्शित करन आवश्यक है। यह व्यवहारिकता ही जनता में आशा और उत्साह क़ायम रखती रहती है, बावजूद अनेकों मुसीबतों के।

राज्य हो या पूरा ही देश सफल होने के लिये मानव संवेदनाओं को समझना बहुत ज़रूरी है। ज़िम्मेदारियों को निभाते हुये, हम अहंकार को पहचान कर त्याग न सकें तो संवेदनायें हमारे व्यवहार में पैदा हो नहीं सकती।

सब कुछ फिर असहज और नाटकीय ही लगता है। और यह किसी भी समाज या देश को जोड़े रखने और उसके ही सर्वांगीण विकास के लिये अपर्याप्त है।


लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा स्वराज इंडिया पार्टी के संस्थापक संपादक।


 

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