BY- सुशील भीमटा
फूलों पर पड़ी ओस की बूंदें मोती सी जब सजी नजर आती हैं तो हटती नहीं निगाहें ये खूबसूरत मंजर देखकर…लगता है कुदरत पौ फटते ही नए रिश्ते बनाने में मसरूफ है। ये नजारे सुहानी सुबह के उम्मीदों के चमन को रोशन करते नजर आते हैं.
यूँ लगता है जैसे इस पावन धरा पर रिश्ते तभी महफूज रह पाते हैं जब प्यार दुलार की कोमल बुँदे हर दहलीज छू लें। आओ चल निकलते हम भी ओस की बूंदों से हर रिश्ते को सजाने अपनी काबलियत आजमाने ताकि कोई रंज बाकी ना रहे।
दो से चार हो जाए हाथ हर घड़ी सुख दुःख बाँटते नजर आये हमें और ये सफर आसां हो जाए। अगर हसीन है ये नजारे कुदरत और रिश्तों के तो कहीं गमगीन भी है। धूप आने पर बिछड़ जाती है ओस की बुँदे फूल पत्तों से सच है।
वैसे ही रिश्तों को दौलत के गरूर की आंच लग जाए तो ये नाजुक रिश्ते जलने लगतें हैं। मगर जिस तरह अगली सुबह कुदरत फिर ओस की बुँदे का रिश्ता फूल पत्तों से बना लेती है बस हम भी अगर लौट आयें वक्त रहते गरूर के आसमाँ से तो प्यार की हवा रिश्तों में लगी आंच को बुझा पानें का हुनर बख्बी जानती है।
ये जुबाँ से जहम तक का सफर है दोस्तों एक पल के इस सफर में मीलों की दूरियां खत्म हो जाया करती हैं। कुदरत हमेशा इशारा देकर जहम जगाया करती है।
निगाहें अगर खुली रहे तो हर पल ज़िदगी के फलसफे समझाया करती है… जीते जी महोबत की ढाल बनाकर ही रिश्तें सुरक्षित हो पातें हैं वरना चार काँधे भी नसीब नही होते जो आखरी डोली को शमशान ले जाये। अर्थी कफ़न में भी नंगी नजर आती है बेदर्दी के माहौल में।
आंसू सूख जाया करते हैं रिश्तों के रुसवाई के बाद नहीं रोता कोई फिर चले जानें के बाद। एक और एक ग्यारह ये फलसफा जरूरी है इस जहाँ में जीने के लिए। अपनों का होना जरूरी है इस जहाँ में सम्मान पानें के लिए।
विरासत संस्कारों व्यवहारों की छोडो तो अर्थी पर ओस की बूंदों सा हर आंसू सजेगा। जो जिये दौलत के ही गरूर में तो अर्थी पर सजा फूल भी कांटो सा चुभेगा। इस धरती की खूबसूरती कुदरत के नजारों से है। रिश्तों की खूबसूरती संस्कारों-परिवारों और समाज के आचरण व्यवहारों से है।
जब कुदरत बहार लाती है तो फूल-पत्तों हरियाली और ओस की बूंदों से ये जहाँ सजाती है। ठीक इसी तरह जब मोहोब्बत का जखीरा परिवार समाज से संस्कारों-व्यवहारों के रथ पर सवार होकर निकलता है तो ये धरती सोलह श्रृंगार किए दुल्हन सी सजती है।
हर ओर प्यार मोहब्बत के बादल मंडराने लगते हैं और प्यार की हवा हर आशियाँ के घर आँगन से गुजर कर फिजा को महकाने लगती है। उन तिनकों को समेट लेने का हुनर भी है इस हवा में जो वक्त के तुंफा में बहकर कहीं दूर निकल जाया करते हैं। महफूज रहे ये रिश्ते तो ये धरती चमन सब महक उठते हैं।
कोमल है शाखें इनकी प्यार से सम्भालो इन्हें तो तभी चहक उठते हैं, फिर खिलते हैं फूल जो वही फुलवारी बनते हैं, जीवन सफर की बेहतरीन सवारी बनते हैं। बस यूँ ही चलती है रेलगाडी ज़िंदगी की, डिब्बे से डिब्बे जुड़ता रहता बस यही बयाँ करती फूल पत्तों पर ओस की बूंदों की खुमारी है।
एक पैगाम समाज के नाम…..
इस दौर में बेवजह रुसवा होकर जीने लगें हैं, सम्भल जाएँ तो बेहतर है ये अँधेरे रुसवाई के सकूँ-सम्मान निगलने लगे हैं!…ये हवा ना जाने कब आंधी बन जाये, इस चलते दौर में ना जाने कब रिश्तों की समाधी बन जाये!!
लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।