राज्यों को असफलता की ओर धकेल रहा है केंद्र: डेरेक ओ ब्रायन

देश इन दिनों भाजपा के एक दशक के शासन के मध्य में है. पिछली बार ऐसा चार दशक पहले हुआ था, जब कांग्रेस ने 1980 और 1989 के बीच भारी बहुमत हासिल किया था. उस अवधि में, राज्यों के अधिकारों का संघर्ष अनुच्छेद-356 पर केंद्रित था. कमजोर राज्यपालों का उपयोग करते हुए क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों को राजनीतिक रूप से अस्थिर किया गया था. इतिहास खुद को दोहरा रहा है लेकिन बहुत अधिक बुरे ढंग से.

राज्य सरकारों से मुकाबला करने का प्रमुख औजार अब अनुच्छेद-356 नहीं है; यह आर्थिक और वित्तीय रूप से उनको बर्बाद करना है. एक बार फिर 14 वें वित्त आयोग की एक सदाशयी रिपोर्ट का हवाला दिया जा रहा है, लेकिन कदम-कदम पर उसे तोड़ा-मरोड़ा भी जा रहा है.

और यह सब ‘सहकारी संघवाद’ के नाम पर किया जा रहा है जिसकी शुरुआत कोविड-19 के पहले ही हो गई थी, लेकिन महामारी और इससे पैदा हुए आर्थिक व्यवधान ने इसमें तीव्रता ला दी है.

14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट को 2015 में इस वादे के साथ स्वीकार किया गया था कि इससे राज्यों को अधिक वित्त हस्तांतरित होगा. इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, राज्यों के पास नई जिम्मेदारियां होंगी, विशेषकर सामाजिक क्षेत्र में.

दो साल बाद, गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लाते समय भी कहा गया कि इससे सभी राज्यों की समृद्धि में इजाफा होगा. हकीकत में, राज्यों का कर हस्तांतरण लगातार 14वें वित्त आयोग के अनुमानों से कम रहा है.

इसका एक कारण आर्थिक मंदी है जिसका प्राथमिक कारण केंद्र सरकार और जीएसटी का उम्मीद से कम संग्रह रहा है. 2018-19 के लिए जीएसटी संग्रह अनुमानों की तुलना में 22 प्रतिशत कम था.

केंद्र ने सेस की एक शृंखला लागू की है, जो विभाज्य पूल का हिस्सा नहीं है और राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाता. अब कोविड-19 सेस की भी अफवाहें हैं. सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार,

14वें वित्त आयोग में राज्यों से जो वादा किया गया था और जो उन्हें मिला है, उसके बीच 6.84 लाख करोड़ रु. का अंतर है. ऐसा होने के साथ, भारत में सार्वजनिक खर्चों की प्रकृति में भारी बदलाव आया है. 2014-15 में, राज्यों ने केंद्र सरकार की तुलना में 46 प्रतिशत अधिक खर्च वाले कार्यक्रम और परियोजनाएं शुरू कीं.

कोविड-19 ने संकट को और गहरा कर दिया है. राज्यों को आम नागरिकों की मदद करने और आजीविका बचाने के लिए अधिक खर्च करने की आवश्यकता है. केंद्र लगभग नगण्य समर्थन प्रदान कर रहा है. बंगाल में, 30 जून तक राज्य सरकार ने कोविड-19 से लड़ने में 1200 करोड़ रु. खर्च किए थे.

केंद्र ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और स्टेट डिजास्टर रिस्पॉन्स मिटिगेशन फंड के तहत 400 करोड़ रु. दिए हैं, लेकिन विशेष रूप से महामारी के लिए कुछ भी नहीं दिया. बंगालियों की स्मृति में अब तक के सबसे खराब अनुभव रहे चक्रवाती तूफान अम्फान ने 28 लाख घरों और 17 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को तबाह कर दिया.

Kolkata surveys damage after bearing brunt of Cyclone Amphan ... amfan tyfoon

इसमें 1.02 लाख करोड़ रु. के नुकसान का अनुमान लगाया गया. कोलकाता में ममता बनर्जी सरकार ने तुरंत 6250 करोड़ रु. जारी किए, जबकि केंद्र ने सिर्फ 1000 करोड़ रु. की पेशकश की. महामारी के बाद वित्त मंत्रालय ने सभी केंद्रीय मंत्रालयों को खर्च में कटौती करने के लिए कहा है.

इसका तत्काल प्रभाव राज्यों द्वारा महसूस किया जा रहा है और सरकार से मिलने वाले अनुदान बंद हो गए हैं. महत्वपूर्ण ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में ठहराव आ गया है. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा पंचायती राज संस्थाओं की परि- योजनाओं के लिए 2020-21 में 4900 करोड़ रु. बंगाल को हस्तांतरित किए जाने हैं. वित्तीय वर्ष का एक चौथाई समय बीत चुका है लेकिन एक पैसा भी नहीं आया है.

इस पैसे का सत्तर प्रतिशत ग्राम पंचायतों के लिए और 30 प्रतिशत पंचायत समितियों व जिला परिषदों के लिए है. यह सूत्र मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सिफारिश के बाद आया था, जिसे प्रधानमंत्री ने स्वीकार कर लिया. यह फंड सड़क, पुल निर्माण, स्थानीय पेयजल परियोजनाओं और इसी तरह की योजनाओं के निर्माण के लिए है जो रोजगार पैदा करती हैं और गांव की अर्थव्यवस्था की मदद करती हैं. यह सब कुछ बंद हो गया है.

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