BY- SANJAY PATHAK
पश्चिम बंगाल की राजधानी और पिछली सदी के अर्ध्योत्तर तक व्यापार-वाणिज्य के प्रमुख केंद्र रहे कोलकाता में कल शाम से शुरू हुआ घटनाक्रम सियासत की अराजकता है या अराजकता की सियासत– कहना कठिन है.
भारत के संघीय ढांचे पर इस घटना का क्या प्रभाव होगा और संघ-राज्य सम्बन्ध इससे कितना प्रभावित होंगे, यह फिलहाल भविष्य के गर्त में है.
भारत और विशेषतः पूर्वी-पूर्वोत्तर क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं की कमी ने चिटफंडियों को फलने-फूलने-लूटने के अगाध अवसर उपलब्ध कराये.
संगठित बचत-निवेश से सर्वथा अनजान जनता ने इन चिटफंडियों के लोक-लुभावन योजनाओं-वादों पर आँख मूँद कर भरोसा किया. अपनी मेहनत की कमाई में से अपने आवश्यक
आवश्यकताओं को दरकिनार कर बचाई हुई पूँजी इस उम्मीद से इन चिटफंडियों के हवाले कर दिया कि इससे उनकी समृद्धि के द्वार खुलेंगे और उनके खुद के देखे कम और इन चिटफंडियों द्वारा दिखाए तमाम सपने पूरे होंगे.
कोलकाता स्थित सारधा समूह ने एक क्लासिक पोंज़ी योजना चलाई जिसमे एक निवेशक के निवेश को लौटाने के लिए तीन नए निवेशक बनाने थे.
अपनी इसी योजना के तहत सारधा समूह ने लगभग 18 लाख निवेशको के 24 अरब रुपये अपने और अपनों की अय्याशियों पर उड़ा दिए. सारधा समूह के इस घोटाले ने व्यपार-राजनीति-नौकरशाही के डरावने और घृणित गठजोड़ को भी उजागर कर दिया.
इस घोटाले के उजागर होने के बाद पश्चिम बंगाल के तत्कालीन खेल एवं परिवहन मंत्री – मदन मित्रा, राज्य के पूर्व पुलिस महानिदशक – रजत मजुमदार, सांसद कुणाल घोष एवं सृंजोय बोस
तथा मशहूर फ़ुटबाल क्लब ईस्ट बंगाल के अधिकारी देबोब्रत सरकार की गिरप्तारी ने यह साफ़ कर दिया कि इन घोटालेबाजों का सियासी और प्रशासनिक रसूख क्या है.
चूँकि, इस घोटाले की आंच राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनते तमाम सियासी साथियों तक भी पहुंची, लिहाजा राज्य सरकार ने मामले की जाँच के लिए एसआईटी बना दिया
और एक तय समय में जांच पूरी कर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा देने का भरोसा दिलाया. राज्य के पुलिस महानिदेशक की निगरानी में इस जाँच टीम का नेतृत्व कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार को सौंपा गया.
हालाँकि राज्य सरकार ने इस मामले की जाँच के लिए अप्रैल 2013 में स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम गठित कर दिया था परन्तु लगभग एक साल बीतने के बाद मई 2014 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में सीबीआई को जाँच का आदेश दिया गया.
सीबीआई ने मई 2014 में जाँच के लिए संयुक्त निदेशक- पूर्वोत्तर क्षेत्र राजीव सिंह के नेतृत्व में विशेष जाँच टीम का गठन कर दिया. चूँकि, जाँच सीबीआई को स्थान्तरित होने से पहले कोलकाता पुलिस की एसआईटी जाँच कर रही थी
और मामले से जुड़े तमाम सुबूत-प्रपत्र कोलकाता पुलिस के कब्जे में थे, लिहाजा कोलकाता पुलिस आयुक्त को मामले से जुड़े सारे दस्तावेज सीबीआई को देने की अपेक्षा की गयी.
साथ ही जाँच के दौरान आवश्यक होने पर पूछताछ के लिए प्रस्तुत होने के निर्देश भी दिए गए. पिछले दो सालों में कई बार कोलकाता पुलिस आयुक्त को जाँच में सहयोग देने
और आवश्यक दस्तावेजों को सीबीआई को उपलब्ध कराने के लिए कहा गया, पर राजीव कुमार ने न ही आवश्य दस्तावेज उपलब्ध कराये न ही जाँच में सहयोग के लिए सीबीआई के सम्मुख उपस्थित हुए.
राजीव कुमार के इस रुख से सीबीआई अधिकारीयों का यह संदेह और पुख्ता होता गया. कोलकाता पुलिस की जाँच में कुछ ऐसे प्रपत्र-सबूत हाथ लगे हैं जो इस घोटाले के
तार को तृणमूल कांग्रेस और राज्य की पुलिस-प्रशानिक व्यवस्था से जुड़े लोगों से जोड़ते हैं. साथ ही सीबीआई ने यह संदेह भी जाहिर किया कि राजीव कुमार के नेतृत्व वाली एसआईटी
उन सबूतों-दस्तावेजो को नष्ट करने में लगी है जो निष्पक्ष जांच की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. बहरहाल, जब बार-बार के बुलावे के बाद भी राजीव कुमार जाँच में सहयोग और आवश्यक पूछताछ के लिए सीबीआई के सम्मुख नहीं उपस्थित हुए तो,
कल शाम सीबीआई अधिकारीयों का एक लाबा-चौड़ा दल कोलकाता पुलिस के आवास पर आ धमका, जंहा स्वतंत्र भारत के इतिहास की वह अकाल्पनिक घटना घटी जिसमे राज्य की पुलिस और सीबीआई आमने-सामने थी.
विचारणीय प्रश्न यह नहीं है कि राजीव कुमार ने सीबीआई जाँच में सहयोग करने में आनाकानी क्यों की या जाँच में सहयोग क्यों नहीं किया, अपितु विशद प्रश्न यह है कि
राज्य की मुख्यमंत्री को अपने एक अधिकारी को सीबीआई के हत्थे से बचाने के लिए धरने तक पर बैठ जाने और पूरे राज्य को अराजकता और अव्यवस्था की आग में झोंक देने की ज़रुरत क्यूँ पड़ी ?
क्या राजीव कुमार का सीबीआई जांच में सहयोग न देना भी एक राजनीतिक परिस्थिति है और उस अधिकारी से सख्ती के विरोध में खुद मुख्यमंत्री का धरने पर बैठ जाना किसी बड़े और भयावह घटनाक्रम का इशारा है ?
(लेखक संजय पाठक राष्ट्रीय सहारा के वरिष्ठ संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)