BY-THE FIRE TEAM
“एक धक्का और दो, बाबरी तोड़ दो…”, अयोध्या का आसमान चीरते ये नारे, सैकड़ों साल पुरानी मस्जिद पर चोट करतीं कुदालों की ठक-ठक, सरकारी दफ़्तरों में चोंगे पर रखे हुए फोनों का लगातार घरघराना और ऊंचे स्वर में जय श्री राम के उद्घोष.
ये वो आवाज़ें थीं जिन्होंने छह दिसंबर, 1992 की तारीख़ को शक्ल दी. लेकिन सात दिसंबर 1992 को पूरा देश एक अजीब सन्नाटे में डूब गया…जैसे तूफान से पहले की शांति.
लग रहा था मानो दो हिस्सों में बंट चुके समाज में इस ओर से लेकर उस ओर के आम लोग खुली आंखों से अगली अनहोनी का इंतज़ार कर रहे थे.
आम लोगों से लेकर पत्रकारों तक के लिए सात दिसंबर का दिन आसान नहीं था.
मुंबई
अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के लिए काम कर चुकीं वरिष्ठ पत्रकार सुजाता आनंद ने मुंबई में सात दिसंबर की सुबह से लेकर शाम तक का वाकया बीबीसी के साथ साझा किया है.
वे बताती हैं, “सात दिसंबर, 1992 की सुबह मुंबई की सड़कों पर एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया. हमारे एक दोस्त ने बताया कि मोहम्मद अली रोड पर भारी तनाव और काफ़ी सारे लोग जमा हैं. मुझे उस रोड से जाने के लिए मना किया गया.”
“मैं उस वक्त समाचार एजेंसी यूएनआई में काम करती थी. छह दिसंबर की शाम को भी मैं देर रात तक दफ़्तर में ही थी. उन दिनों यूएनआई में रेडियो फ़ोटो मशीन हुआ करती थी जो किसी और एजेंसी के पास नहीं होती थी.
इसलिए सारे अख़बार के फ़ोटोग्राफ़र बाबरी मस्ज़िद विध्वंस की तस्वीरें लेने के लिए आए हुए थे. न्यूज़रूम में एक अजीब सी स्तब्धता थी.”
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Reuters
“लेकिन सात तारीख़ की शाम को चेतावनी के बावजूद मैंने मोहम्मद अली रोड से जाने का फ़ैसला किया. मैंने फ़ैसला किया कि मैं वीटी से तारदेव की ओर जाने वाली बस लेकर जाऊंगी.
ये बस कामाजीपुरा जैसे इलाकों से होकर गुजरती थी. जब मेरी बस मोहम्मद अली रोड से निकल रही थी तभी एक बच्चा अपने हाथ में एसिड बम लेकर बस की ओर दौड़ा.
और उसने मेरी ओर बम फेंका. मैंने अपने चेहरे को बचाने के लिए अपने हाथ आगे कर दिए और मैं किसी तरह बच गई” सुजाता आनंद ने बताया कि मुंबई के अलग-अलग इलाकों में सात तारीख़ को ऐसी ही गतिविधियां देखी गईं.
मुंबई समेत देश के अलग-अलग इलाकों में तनावपूर्ण माहौल था.
लखनऊ
बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान घटनास्थल पर मौजूद फोटो जर्नलिस्ट मनोज भार्गव ने बीबीसी को बताया, “मैं छह दिसंबर को मस्जिद के पीछे खड़ा था.
मेरा कैमरा तोड़ दिया गया और मैं किसी तरह वहां से निकला. एक आतंक का माहौल था. जब मैं लखनऊ पहुंचा तो मैंने आर्मी की गाड़ियां रवाना होती हुई देखीं. ये गाड़ियां अयोध्या की ओर जा रही थीं.”
मनोज बताते हैं, “सात दिसंबर के दिन मैं लखनऊ में था, मेरे पास कैमरा नहीं था. शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था, आर्मी तैनात कर दी गई थी.
उन दिनों मैं लखनऊ में अकेला ही रहता था. मेरा परिवार जयपुर में था और परिवार में भी डर का माहौल था. उस दौर में मोबाइल फोन तो थे नहीं, इसलिए घरवालों ने दो बार मेरे दफ़्तर फोन करके मेरी ख़ैरियत पूछी.”
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लखनऊ में तब नवभारत टाइम्स के संपादक रहे राम कृपाल सिंह बताते हैं, “सात तारीख़ की सुबह सड़कों पर मिठाई बांटी गई. अल्पसंख्यक समुदाय अपने घरों में सिमटे रहे.
हालांकि, कई रामभक्त ऐसे भी थे जिन्हें इस घटना का दुख था. मैं तब रोज़ाना अयोध्या जाता था और शाम को लौट आता था. छह दिसंबर के रोज़ भी मैं अयोध्या में ही था, हालांकि मैं कुछ पहले वहाँ से लखनऊ लौट आया था. उसके बाद तो वहाँ जाने का सवाल ही नहीं था.”
“जहाँ तक माहौल की बात है तो माहौल बहुत ही तनावपूर्ण था. लखनऊ और आसपास के इलाकों में कर्फ़्यू लगा हुआ था. बिलकुल अप्रत्याशित स्थिति थी, कयास लगाए जा रहे थे कि सरकार बर्खास्त होगी या क्या होगा?”
पटना
अगर देश के अन्य हिस्सों की बात करें तो बिहार की राजधानी पटना में उत्तर प्रदेश के शहरों जैसा उग्र माहौल नहीं देखा गया.इसकी वजह ये थी कि बिहार में राम जन्म भूमि से जुड़ी राजनीति का ज़्यादा असर नहीं था.
उस दौर तक लालू यादव एक बेदाग छवि वाले नेता थे और बिहार में जय प्रकाश के आदर्शों वाली राजनीति उछाल पर थी.
पटना में राजनीतिक संवाददाता के रूप में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश बताते हैं, “सात दिसंबर के दिन पटना की सड़कों पर तनाव की स्थिति थी.
टीवी चैनल आज की तरह तो नहीं थे लेकिन लोगों तक रेडियो और कानों-कान ख़बर पहुंच चुकी थी. लेकिन अगले दिन समाज में एक गहरी उत्सुकता थी. लोग जानना चाहते थे कि इस विध्वंस में कौन सा नेता आगे था.”
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उर्मिलेश बताते हैं, “लोग इस घटना के बारे में विस्तार से जानने के लिए अख़बार पढ़ना चाहते थे. बाज़ार से लेकर चाय की दुकानों पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म था.
मुझे याद है उस दिन अख़बार भी ज़्यादा छापे गए थे. तत्कालीन लालू यादव सरकार ने इस पर कड़ा बयान दिया था और सुरक्षा व्यवस्था चुस्त करने की ओर कदम उठाए. सड़कों पर पुलिस की टुकड़ियां देखी गईं.
लेकिन उत्तर प्रदेश के शहरों की तरह पटना का माहौल नहीं था क्योंकि यहां की राजनीति दूसरे तरह की थी.”
पाकिस्तान में हालात
पाकिस्तान में अगर इस घटना के असर की बात करें तो वहां पर कई मंदिरों को तोड़े जाने की ख़बरें थीं.
पाकिस्तान में गिराए गए एक मंदिर की तस्वीर
आठ दिसंबर को छपे अमरीकी अख़बार न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक़, “सात दिसंबर के दिन पाकिस्तान में 30 हिंदू मंदिरों को तोड़े जाने की घटनाएं सामने आई थीं.
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और बाबरी मस्जिद विध्वंस पर कड़ा ऐतराज़ जताया और मस्जिद का पुनर्निर्माण जल्द करने की मांग की.
भारत समेत पाकिस्तान के कई अन्य इलाकों में भी स्तब्धता का माहौल देखा गया, लेकिन ये सन्नाटा सात तारीख़ बीतते-बीतते दंगों में बदल गया.
उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और कई अन्य जगहों पर बेगुनाह लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
(बीबीसी)