BY-THE FIRE TEAM
जिस तरह से हमारी दिन और जीवनचर्या लगातार आर्थिक व्यवस्था में तब्दीली आने के कारण बदलती जा रही वैसे ही हमारी सोच भी अब पारंपरिक बंधनो से मुक्त होती जा रही है.
इसी क्रम में एक नई शब्दावली विकसित हुई है- सैंडविच जेनेरशन. इस जेनरेशन में वे लोग आते हैं जो 30 से 50 साल की उम्र के हैं और अपने बच्चों और माता-पिता का एक साथ ख्याल रख रहे होते हैं.
ये लोग नौकरी, बच्चों और माता-पिता की ज़िम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं और इसमें सफल होते हैं या तो कभी खुद को फंसा हुआ महसूस करते हैं.
आपको बता दें कि अमूमन बच्चों और माता-पिता के बीच टकराव की वजह बनता है समय की कमी, पैसे की दिक्कत और जेनरेशन गैप.
आंकड़े कहते हैं कि 62% बेटे, 26% बहुएं, 23% बेटियां बुजुर्गों को एक वित्तीय बोझ की तरह देखते हैं. घर में रहने वाले सिर्फ़ 11 प्रतिशत बुज़ुर्ग ही कमाते हैं और मदद कर पाते हैं. औसतन एक परिवार अपने घर के बुज़ुर्ग पर 4,125 रुपये खर्च करता है.
समय की बात करें तो 42.5% लोग अपने बुज़ुर्ग को घर पर अकेला छोड़ देते हैं और 65% मेड के सहारे उन्हें छोड़कर जाते हैं. कई बार दोनों के बीच अच्छी तरह बैठकर बात भी नहीं हो पाती है. ऑफिस, बच्चे, बुज़ुर्ग और घर के काम उनके समय को बांट लेते हैं.
ये सभी कारण मिलकर तनाव पैदा करते हैं और घर में मनमुटाव हो जाता है. आंकड़े कहते हैं कि 25.7% लोग अपने घर के बुज़ुर्ग को लेकर गुस्सा और चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं.
ये लोग बच्चों और माता-पिता दोनों के साथ जेनरेशन गैप का भी सामना करते है. उन्हें बच्चों से भी तालमेल बैठाना होता है और बुज़ुर्गों से भी. एक साथ कई ज़िम्मेदारियों का बोझ उनके कंधों पर होने से उनके व्यवहार में रुखापन आ जाता है.
क्या हो समाधान?
इस संबंध में हेल्पएज इंडिया के सीईओ मैथ्यू चैरियन कहते हैं, “घर में दुर्व्यवहार झेलने के बावजूद बुज़ुर्ग माता-पिता अपने बच्चों के साथ रहना ही पसंद करते हैं.
इसलिए ज़रूरी है कि बुज़ुर्गों और उनके बच्चों के बीच समस्याओं को कम किया जाए. हम बुज़ुर्गों की समस्या को तो समझें पर साथ ही बच्चों के चुनौतियों पर भी गौर करें.”
“जैसे कि अगर स्वास्थ्य सुविधाएं अच्छी हों तो बुज़ुर्गों का इलाज कराना आसान होगा. अगर ऑफिस में पेरेंट लीव की सुविधा हो तो छुट्टी लेने में आसानी होगी. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी हो तो पैसों की दिक्कत नहीं आएगी.”
सहेली जैसी सास-बहु :
साथ ही आपसी संवाद और सहयोग से भी तालमेल बैठाया जा सकता है. दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे को समझने की जरूरत है. जैसा कि दिल्ली की रहने वाली पूजा नरुला कहती हैं,
“अगर घर में सपोर्ट न हो तो वाकई सैंडविच वाली हालत हो सकती है. लेकिन, मेरी सास ने मुझे इतना सहयोग दिया कि मैं जो भी कर पा रही हूं वो उन्हीं की मदद से है.”
पूजा नरुला अपने बच्चों, पति और सास-ससुर के साथ रहती हैं. उन्हें परिवार को दो तरफ़ से संभालना होता है.
इसी तरह पूजा की सास भी उन्हें बेटी से कम नहीं मानतीं. वह कहती हैं, “अगर हम सारी ज़िम्मेदारी बच्चों पर डाल देंगे तो उनका बोझ बढ़ेगा ही. इसलिए मैं घर में जो भी काम कर सकती हूं वो करती हूं.
हम दोनों सहेलियों की तरह रहते हैं. किसने ज़्यादा किया, किसने कम, ये मायने नहीं रखता. खुद को भी बैठाकर नहीं रखना चाहिए. हां, अगर माता-पिता मदद करने की स्थिति में नहीं हैं तो जरूर उनका पूरी तरह ख्याल रखना चाहिए.”