‘विधवाओं के गांव’ में अब भी है इंसाफ का इंतजार


BY-THE FIRE TEAM


40 साल बीतने के बाद भी इंसाफ ना मिलने की परंपरा इस देश में नई नहीं है. खासकर उन लोगों के लिए जिनके पास ना कोई साधन है ना ही अपनी आवाज उठाने का कोई जरिया है.

यह कहानी तेलंगाना के महबूबनगर गांव की है जहाँ 1970 के दशक से लेकर आजतक विधवा महिलाएं इंसाफ का इंतजार कर रही हैं.

Credit- Asia Times

इन महिलाओं ने सिलकोसिस बीमारी के चलते अपने पतियों को खो दिया. तेलंगाना के इलिकट्टा, रंगमपल्ली जैसे कई गांव हैं जहां कि महिलाओं ने अपने पतियों को खदानों में काम करते खो दिया है.

ज्यादातर गांवों को विधवाओं का गांव कहा जाता है. वहां काम कर रही कंपनियों और सरकार ने इनको हाशिए पर छोड़ दिया है. सन् 1974 में जब कंपनियों को वहां के मजदूरों

की बिगड़ती तबियत और हालत का पता चला तो उन्होंने वहां से अपना पल्ला झाड़ लिया. लोगों को थोड़े-बहुत पैसे देकर कहा गया कि अब यहां कोई लाभ नहीं है.

धीरे-धीरे सभी मजदूरों की नौकरी छीन ली गई. लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करवाने के बजाय उन्हें छोड़ दिया गया. जिन मजदूरों ने इस बीमारी,

गौरतलब है कि सरकार और कंपनी की लापरवाही के कारण अपनी जान गंवाई उनके घरवाले अब भी इंसाफ का इंतजार कर रहे हैं.

क्या है सिलकोसिस बीमारी ?

सिलिका के खनन और धूल के कणों के कारण होने वाली बीमारी को सिलकोसिस कहा जाता है. रेत-बालू के खदान, पत्थर तोड़ने और रगड़ने के काम करने वाले मजदूरों को इससे ज्यादा खतरा रहता है.

इस बीमारी का पता जल्दी नहीं चलता. शुरू में खांसी, बुखार और सांस लेने में दिक्कत होती है. धीरे-धीरे ये बीमारी अपना असर दिखाना शुरू करती है.

WHO के मुताबिक सिलिकोसिस एक लाइलाज बीमारी है. मजदूरों को उस क्षेत्र से दूर रखना और बीमारी शुरू होने से पहले ही इसकी जड़ खत्म कर देने से इस बीमारी का खतरा टल सकता है.

हमारे समाज में खनन के कारण हर दिन मजदूरों की जान जा रही है. लेकिन इसकी चर्चा कहीं नहीं है. अपना हक पाने के लिए ना जाने कितने मजदूरों को अपनी जान देनी पड़ेगी

(Source- THE HINDU)

Leave a Comment

Translate »
error: Content is protected !!