दलित और भारतीय राजनीति: एक मंथन

 

BYNAVNATH MISHRA

दलित शब्द देखा जाय तो पीड़ित, शोषित, दबा हुआ शब्दों के भावार्थ को प्रदर्शित करता है तथा फलित शब्द के विलोम के तौर पर जाना जाता है। जिसका अर्थ है उच्च, प्रसन्न और पीड़ा मुक्त। किन्तु आधुनिक भारत में यह शब्द किन्ही जातियों विशेष के लिए किया जा रहा है।जिन्हें विधिक रूप से अनुसूचित वर्ग की मान्यता प्राप्त है।

हमारे सामाजिक राजनीतिक घालमेल ने इसे वैदिक शूद्र के पर्याय या पूर्व के अछूत जातियों के रूप में भी स्थापित करने का प्रयास कीया है। किन्तु इस घाल मेल की ऐतिहासिक सच्चाई को जानना अनिवार्य है तभी इसको प्राप्त लाभों और हानियों का परीक्षण किया जा सकता है।

यदि हम इस घालमेल को देखेंं तो पाएंगे कि अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मध्यकालीन शासक, अंग्रेजी शासन और स्वतंत्रता के पश्चात के शासकों ने प्रयोग किया और अब भी कर रहे हैंं। इसका मूल कारण यह है कि सत्ताधारी जब जनाकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरते तो उन्हें सबसे सरल उपाय फूट डालो और शासन करो की निति पर चलना होता है।जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ता है। इन सभी सत्ताधारियों ने  सबसेे सरल द्वन्द मनु की वर्ण व्यवस्था को बनाया और अपने ब्राह्मण बनाम दलित की राजनीति की।

मध्यकालीन  शासकों ने जहा धर्मपरिवर्तन के जरिये इन दलित को इस्लाम को अपनाने के लीये मजबूर किया तो वही अंग्रेजों ने ब्रिटिश वफादार सेवक पैदा करने के लिए इस द्वन्द को जन्म दिया तथा मिशनरियो ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, तो वर्तमान सत्ताधारियों ने कुर्सी व पूंजीवाद की रक्षा के लिए तो वहीं मर्क्सवादियों ने वर्ग संघर्ष साबित कर स्टालिन माँओ  के  राजनीतिक हितों के अनुकूल भारत बनाने की सोची।

और इसमें शिकार मेरा मनु और उसकी नैतिक व्यवस्था बनी जो पूर्णतः अभिक्षमता पर आधारीत थी न की विभेद पर। जैसे मनु कहते हैं  एक जन्मना जायते शुद्र: कर्मणा द्विज उच्चते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते है कर्म से ही द्विज बना जा सकता है। 2 शूद्रो ब्राह्मणता मेति ब्रह्मनश्चेति शूद्रताम्(१०/६५) अर्थात ब्राह्मण शूद्र का कार्य कर सकता है और शूद्र ब्राह्मण का। मनुस्मृति यह भी कहता है की ब्राह्मण यदि बुरी संगत में रहता है तो वह शूद्र है(४:२४५)।

प्राचीन भारतीयों का समाज इसी सिद्धान्त पर टिका था तथा अछूत जैसी कोई जाति नहीं थी। जैसे मातंग ऋषि चांडाल के घर पैदा हो ब्राह्मण बने।(महाभारत अनुशासन पर्व अध्ययन 3) रावण ब्राह्मण हो राक्षस कहलाये।

जिसे आज हम sc caste कहते हैैं उसने हिन्दू धर्म की नीव रखी तथा इसके विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया सायद ब्राह्मणों से कहीं ज्यादा। चाहे रामायण की रचना हो या महाभारत की सभी इन्ही दलितों ने की।

दलित गौरव यही तक सीमित नहीं रही बल्कि इनमें से कई जातियों का शासकीय इतिहास भी है जैसे पासियों का। जैसे बहराइच युद्ध में हिन्दू धर्म की रक्षा राजा बीसलदेव पासी ने शयद शेलार गाज़ी को हरा कर किया।(मार्क्सवादी इतिहास की भेट यह युद्ध चढ़ गया आज कोई जिक्र नहीं है)।

11वी शताब्दी में लखनपासी ने लखनऊ बसाया। शिवाजी जिन्हें हम ब्राह्मण धर्म की रक्षा के लिए जाना जाता है उनकी शक्ति महारो की बहादूर जाति पर टिकी थी। महार के नाम पर ही महाराष्ट्र शब्द की उत्पति हुई। रानी लक्ष्मी बाई (ब्राह्मण शशिका)की सेना नायक झलकारी बाई कोरी थी।

स्पस्ट है हिन्दू समाज में जैसा बताऊ अछूत व्यवस्था आरम्भ में तो नहीं ही थी। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमण के बाद उत्पन्न हुई। उनके मलमूत्र ढोने के कारण जो भारतीय समाज में नहीं थी(यहाँ खुले में शौच जाने की व्यवस्था थी)। यही से अछूत उभरे। मार्क्सवादी इतिहास ने चतुराई से इसे छुपा लिया।

यहाँां तक की मध्यकाल में मीरा के गुरु संत रवीदास थे।

आधुनिक भारत के 1935 गजेटियर में कुल 429 आरक्षित जातियांं थी जिसमें पासी जैसी शशक जातियों को भी शामिल किया गया( devide and rule policy ke tahat). आधुनिक भारत में अंग्रेजों ने भी अछूत पैदा करने और हिन्दू समाज को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

जैसे 1881 से 1901 तक इन्होंने धर्म के आधार पर जनगणना किया। जब इन्होंने देखा की हिंदू अब भी शक्तिशाली हैै तो 1901 के बाद डिवाइड एंड रूल के तहत हिन्दू समाज को 3 भागो में बांटा 1हिन्दू (जिनके घर ब्राह्मण कर्मकाण्ड होते थे)2 आदिवासी 3 अछूत।

अछूत के अंतर्गत जनगणना अधिकारी ने 10 बिंदु तय किये जैसे:—

एक जो ब्राह्मण को नहीं मानता, 2 जो वेदो को नहीं मानता, 3 जो मंदिर नहीं जाता(इसमें मंदिर में प्रवेश वर्जित का जिकर नहीं है),4 जो ब्राह्मण से दीक्षा नहीं लेता, 5 जो गौ मांस खता हो, 6 अपने मुर्दो को दफनता हो आदि।

इसके बाद 1901 के बाद ही आरक्षण के जरिये हिन्दू को बाँटने की नीति और इसाईकरण की नीति को तेज़ किया गया। रिजर्वेशन पॉलिसी के जरिये मद्रास प्रेसिडेंसी ने कोल्हापुर के महाराजाा शाहूजी महाराज को बाध्य किया।

जिसमें 44% गैर ब्राह्मण को 16%ब्राह्मण को 16%मुस्लिमों को 16% आंग्ल ईसाइयों को तथा 8% अछूतों को दिया गया। किन्तु यहाँ भी अछूत वैदिक नहीं बल्कि अंग्रेजों की हवेलियों के गुलामों को कहा गया जैसे बटलर, कुक, टॉयलेट क्लेन करने वालो को।

अंततः स्पष्ट है की अछूत हिन्दू समाज की दें नहीं। बल्कि ब्राह्मण और दलित दोनों ही पहले विदेशी शासकों के शिकार हुए और आज भारतीय शासकों के।

संस्कृत को भारत की राज भाषा बनाने के लिए 10 नवंबर 1949 को अम्बेडकर ने एक प्रस्ताव लाया जो पारित नहीं हो सका। अम्न्छ अंबेडकर अनुच्छेद 370 के विरोधी थे।उन्होंने धर्म परिवर्तन भी संस्कृति के भीतर किया। आरक्षण का समर्थन 10 वर्ष के लिए किया। ताकि सत्ताधारी समानता ला सके। किन्तु 1950 में आरक्षित जातियां 550 थी और आज 1200 से अधिक।

अम्बेडकर ने कभी ऐसे भारत की कल्पना नहीं की थी की पिछड़ापन घटने के बजाय बढ़ेगा, सरकार के हाथ भस्मासुरी हाथ साबित होंगे और अम्बेडकरवाद का चोला पहन मार्क्सवादी कश्मीर की आज़ादी के नारे लगाएंगे। जिस गौ हात्या का निषेध की उम्मीद उन्होंने संविधान में किया उसे खाना मौलिक अधिकार माना जायेगा।

जिग्नेस मेंंवानी और कन्हैया कुमार जैसे लोग उनका दुरुपयोग करेंगे साथ ही कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां उनके समानता सिद्धांत के विरुद्ध राजनैतिक स्वार्थ के लिए sc/st जैसे विभेदकारी क़ानून लाएंगी  जोकि अम्बेडकर और मनु दोनों के नीतिशास्त्र के विपरीत है।

इतिहासकारों ने भी अपने-अपने वर्ग के अनुकूल भारत की महान जातियों को दबा कुचला साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और भारत की ये महान जातियां आज राजनैतिक द्वन्द का शिकार हो चुकी है, जिसका समाधान केवल संघ के पास है।

वह इसे क्या दिशा देगी इन्हें कैसे जोड़ेगी तथा एक राष्ट्र का निर्माण कैसे करेगी यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा है इसके लिए संघ को एक तरफ़ बाह्य मोर्चे पर मार्क्सवादियों और पाक समर्थित आतंकवाद से तथा आंतरिक मोर्चे पर बीजेपी की पूंजीवादी प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए खुद को तैयार रखना होगा, ताकि आरक्षण का लाभ कोई फलित(आर्थिक सम्पन) दलित की जगह न उठा ले और वास्तविक दलितों चाहे वह किसी जाति के होों  या मजहब के प्राप्त हो सके…

डिस्क्लेमर:लेख में दिए गए संपूर्ण विचार लेखक के निजी विचार हैं। जानकारी और तथ्य को लेकर द फायर की किसी भी प्रकार से कोई जवाबदेही नहीं है।

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