By-Salman Ali
आजकल सोशल मीडिया पर केरल बाढ़ को लेकर एक अलग नजारा देखने को मिल रहा है। प्रत्येक घटना की तरह केरल की इस भीषण बाढ़ में जिसने ना जाने कितने लोगों की जान छीन ली है के बावजूद भी दो गुट बन गए हैं। एक गुट केरल की इस बाढ़ में वहां के लोगों के साथ खड़ा है। वहीं दूसरा गुट अपनी एक अलग किस्म की पहचान बनाते हुए लोगों द्वारा की जा रही मदद के विरोध में खड़ा है। मदद ना करना यह एक अलग पहलू हो सकता है लेकिन जो लोग मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं उनको रोकना एक भयावह स्थिति को प्रकट करता है, जो कि हमारे देश की एकता व अखंडता के लिए बेहतर नहीं है।
दरसल सोशल मीडिया पर केरल बाढ़ को लेकर एक अलग किस्म के किस्से गढ़े जा रहे हैं जो ना तो किसी वैज्ञानिक अवधारणा को अपने में समेटे हैं और ना ही वह तार्किक हैं। क्योंकि केरल की बाढ़ का गाय माता से क्या तात्पर्य? आप सोच रहे होंगे यह गाय माता बीच में कहां से आ गई। तो मैं आपको बताता चलूं कि कुछ लोग सोशल मीडिया पर यह अफवाह फैला रहे हैं कि केरल के लोग गाय का मांस खाते हैं इसलिए जो बाढ़ आई है यह इसी पाप का नतीजा है।
लोग यही नहीं रुके वह इस बाढ़ को सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित पहलू को जोड़कर एक अलग किस्म का किस्सा भी गढ़ रहे हैं। खास बात यह भी है कि इन मनगढ़ंत बकवासों को केवल आम बेरोजगार जनता ने ही नहीं फैलाया बल्कि बड़े-बड़े धर्माचार्यों ने बाकायदा ट्वीट करके फ़ैलाया है। शायद इन मनगढ़ंत कहानियों का तर्क उस मौसम विभाग या फिर पर्यावरण विभाग के वैज्ञानिक पहलू से ज्यादा मजबूत है जिन्होंने इस बाढ़ के आने के अनेक कारण गिनाए हैं।
जब इस प्रकार की खबरें सोशल मीडिया पर घूम रहीं थीं। तब कुछ समय के लिए मैं भी अचंभे में था कि गाय तथा सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश से कैसे बाढ़ आ सकती है। यहां सवाल गाय या स्त्रियों के मंदिर प्रवेश व बाढ़ कैसे आई से नहीं है। बल्कि सवाल यह है कि 21वीं सदी के भारत की मनोदशा किस प्रकार की बनती जा रही है। एक युवा पीढ़ी को तैयार किया जा रहा है जो अपने को तार्किक बना ही ना पाए। उसको इतना अंधविश्वासी बनाया जा रहा है कि वह आभास ही नहीं कर पा रहा तर्क-वितर्क में।
वह समझ ही नहीं पा रहा है कि यह बाढ़ बारिश के ज्यादा होने से हुई है या नए विकास से जिन्होंने नदियों का रास्ता रोका। दरसल इन युवाओं को शायद यह बताया ही नहीं गया कि एलनीनो नाम की भी कोई चीज होती है,जिसके होने से बारिश के ज्यादा होने की संभावना बढ़ जाती है। उसको ला नीनो के भी बारे में शायद नहीं बताया गया होगा कि इससे बारिश के कम होने की संभावना बढ़ जाती है। क्योंकि यदि केरल में बाढ़ की जगह सूखा पड़ा होता तो शायद लोग उसको भी आज गाय या स्त्रियों के मंदिर प्रवेश से ही जोड़ कर देख रहे होते।
लोग अंधविश्वास के जाल में इस प्रकार जकड़े हुए हैं कि वह किसी भी प्रकार के तर्क को मानने को तैयार ही नहीं होते। हमारे एक खास मित्र हैं जिनको मैं पढ़ा लिखा समझता था। उन्होंने हमसे बात करते समय केरल की बाढ़ को अच्छा तक बता दिया। उनका तर्क गाय माता के साथ जुड़ा हुआ था कि केरल के लोग जब ऐसा करेंगे तो भुगतना तो पड़ेगा ही। हमने उनसे गाय की जगह बीफ खाने की बात बताई तो वह मानने को तैयार ही नहीं थे।
हमने न केवल केरल बल्कि गोवा उत्तर पूर्व के राज्यों के साथ-साथ कर्नाटक में भी बीफ खाने की बात बताई तो इस पर उनका शानदार जवाब था। उनका जवाब था कि अभी आप देखते जाओ यहां पर भी तबाही आएगी। लेकिन मैं भी नहीं रुका मैंने उनसे फिर पूछा कि तब तो फिर पूरा यूरोप,अमेरिका सऊदी अरब जैसे अनेक देश अब तक तबाह हो जाने चाहिए थे। इस प्रश्न पर उनका जवाब सुनकर मुझे एक सेकंड के लिए ऐसा लगा कि क्या हम सच में भारत देश के 21वीं शताब्दी के नौजवान से बात कर रहे हैं। उनका जवाब था वह भारत में थोड़े हैं।
मैंने इसके पश्चात उनसे किसी प्रकार का कोई प्रश्न नहीं किया। मैं सोचने लगा कि यदि पर्यावरण मंत्रालय और राज्य सरकार ने गाडगिल समिति की रिपोर्ट के साथ-साथ कस्तूरीरंगन समिति द्वारा जो पश्चिमी घाट से संबंधित सिफारिशें दी गई थी पूरी तरह से मान लिया होता तो शायद आज अंधविश्वास से जकड़े यह नौजवान बच गए होते हैं।
दरसल 2011 में पश्चिमी घाट से संबंधित माधव गाडगिल के नेतृत्व में एक समिति बनाई गई थी। इस समिति ने पूरे पश्चिमी घाट को ही ईएसज़ेड यानी कि इको सेंसिटिव जोन के तौर पर चिन्हित किया था। इस समिति ने कहा था कि 3 साल में प्लास्टिक बैग का चरणबद्ध तरीके से निपटान होना चाहिए तथा किसी नए विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना की भी अनुमति नहीं मिलनी चाहिए।
इसके साथ ही इस समिति ने सुझाव दिया था कि सार्वजनिक भूमि के निजी भूमि रूपांतरण पर पूर्ण रुप से प्रतिबंध होना चाहिए। तथा बांधों, खानों, पर्यटन व आवास जैसी सभी नई परियोजनाओं के लिए संचयी प्रभाव मूल्यांकन होना चाहिए।
यदि हम इस समिति की सिफारिशों को ध्यान से देखें तो इसमें केरल की बाढ़ को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय दिखते नजर आएंगे। परंतु अफसोस कि इस समिति की सिफारिशों को नहीं लागू किया गया। यहां तक कि न्यायालय को भी सरकार को दिशा-निर्देश देना पड़ा और बाद में इस निर्देश के कारण एक नई समिति गठित कर दी गई जो की कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी। इस समिति ने गाडगिल द्वारा दिए गए कुछ सुझाव को बदलते हुए लगभग समान बात ही कही।
कस्तूरीरंगन समिति ने 2013 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी और खास बात यह रही कि सरकार ने इस समिति की सभी सिफारिशों को मान भी लिया था लेकिन कुछ बदलाव के साथ।
अब जबकि इन दोनों समितियों में बाढ़ को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय थे तब भी केरल की बाढ़ को क्यों नहीं रोक पाया गया यह भी एक बड़ा प्रश्न है। तो क्या सरकार यह देखने में नाकाम साबित हुई है कि कौन सी गतिविधियां शुरू हुई हैं और कौन सी नहीं। यहां पर केवल सरकार को दोष देना भी उचित नहीं क्योंकि कहीं ना कहीं इस त्रासदी के लिए हम और आप भी जिम्मेदार हैं। शायद हम विकास कि इस अंधाधुंध दौड़ में यह भूल रहे हैं कि पर्यावरण के लिए हमारी और आपकी भी कुछ जिम्मेदारी है।
“सलमान के साथ“ ब्लॉग से साभार