कांशीराम की नीतियों के विपरीत दिशा में कदम बढ़ाती माया!


BYसलमान अली


अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का उपाध्यक्ष और भतीजे आकाश आनंद को नेशनल कोआर्डिनेटर बनाने के बाद गठबंधन के रिश्तों को आज ख़त्म कर दिया। मायावती का गठबंधन तोड़ना कोई अचंभित करने वाला निर्णय नहीं है।

लोग पहले ही कयास लगाने लगे थे कि चुनाव पश्चात ऐसा हो सकता है। इससे पहले भी मायावती ऐसा कई बार कर चुकी हैं। लेकिन दूसरा निर्णय थोड़ा विचलित जरूर कर रहा है जिसमें उन्होंने परिवारवाद को बढ़ावा दिया है।

इस निर्णय के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने साबित कर दिया है कि वे पार्टी के संस्थापक कांशीराम की नीतियों और सिद्धांतों से बिल्कुल उल्टी दिशा में जा रही हैं। जिस प्रकार पिछले कुछ समय में बसपा सुप्रीमो मायावती के निर्णय आये हैं वह शायद ही कांशीराम कभी लेते।

कांशीराम ने अपने पूरे जीवनकाल में एक बार भी आरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ा जबकि मायावती ने सिर्फ एक बार। मायावती ने केवल 1984 का कैराना चुनाव सामान्य सीट से लड़ा था और उसके बाद हमेशा आरक्षित सीट से।

टिकट को लेकर भी आरोप लगते रहते हैं कि बसपा सुप्रीमो पैसे से बेंचती हैं। इसके अलावा केवल आरक्षित सीटों पर ही दलितों को लड़ाती हैं। सामान्य सीट पर ज्यादातर उसी वर्ग से या फिर पिछड़े वर्ग के प्रत्याशी को उतारती हैं।

कुछ समय से मुस्लिम वोट को अपने साथ जोड़ने के लिए इस वर्ग के लोगों को भी टिकट दिल खोल के बांट रही हैं लेकिन किसी बड़े नेता के उभरने से डरती भी हैं।

कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी को लंबे संघर्ष और सांगठनिक कौशल से खड़ा किया था। उन्होंने हर राज में एक कद्दावर नेता को उभारने की रणनीति अपनाई थी। शुरुआती दौर में मायावती केवल उत्तर प्रदेश की नेता थीं। पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश व हरियाणा जैसे दूसरे राज्यों में कांशीराम ने पार्टी की कमान दूसरे नेताओं को सौंप रखी थी।

दूसरे राज्यों में कद्दावर नेताओं को खड़ा करने का नतीजा ही था कि 1996 में मध्य प्रदेश की 2 लोकसभा सीटों पर पार्टी ने जीत दर्ज की थी। यहां के कद्दावर नेता फूल सिंह बरैया ने पार्टी को काफी मजबूत किया और जब कांशीराम बीमार हुए तो इनकी मायावती से पटरी नहीं बैठी। नतीजतन बरैया पार्टी से निकाल दिए गए।

जैसे-जैसे मायावती का कद बढ़ता गया दूसरे राज्यों के कद्दावर नेताओं का कद कम होता गया। यह एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए सबसे बड़ा चिंता का विषय होना चाहिए था लेकिन मायावती इससे इतर अपनी ही धुन में चलती रहीं।

काशीराम ने पार्टी में अपने परिवार के किसी सदस्य को कभी बढ़ावा नहीं दिया। प्रारंभ में मायावती भी कांशीराम के ही रास्ते पर चलीं और वह भी वंशवाद का काफी विरोध करती थीं।

उन्होंने एक समय ऐलान भी किया था कि बसपा में उनका उत्तराधिकारी दलित तो जरूर होगा पर उनके परिवार का सदस्य नहीं होगा। लेकिन अपने भाई को पार्टी उपाध्यक्ष बनाने के बाद यह साफ कर दिया है कि उनके परिवार का ही कोई सदस्य बसपा का नेतृत्व करेगा।

कहने के लिए तो बसपा इस समय एक राष्ट्रीय स्तर की मान्यता प्राप्त पार्टी है लेकिन उत्तर प्रदेश को छोड़ दिया जाए तो अन्य 28 राज्यों में बसपा का कोई भी कद्दावर नेता नहीं है।

उत्तर प्रदेश में पार्टी के 19, राजस्थान में 6, मध्य प्रदेश में 2, और छत्तीसगढ़ में 2 विधायक हैं। लोकसभा में भी पार्टी को 10 सीटों पर केवल उत्तर प्रदेश से ही सफलता मिली है, वह भी अखिलेश से गठबंधन करने के पश्चात वरना 2014 में पार्टी शून्य के गोते में खो गई थी।

अगर सांसद की बात की जाए तो 1989, 1991 और 1996 के तीनों चुनाव में पार्टी को यूपी के अलावा मध्य प्रदेश और पंजाब में भी सफलता मिली थी और वह दौर कांशीराम का था।

कांशीराम के बीमार पड़ने के पश्चात पार्टी यूपी में तो अवश्य मजबूत हुई लेकिन जिस मंजिल की तलाश के लिए काशीराम निकले थे वह खोती चली गई।

2012 और फिर 2014 में मात खाने के बाद बसपा के कई दिग्गज नेता पार्टी से अपना नाता तोड़ चुके हैं। जिनमें नसीमुद्दीन सिद्दीकी, रामवीर उपाध्याय, बाबू सिंह कुशवाहा और स्वामी प्रसाद मौर्य शामिल हैं।

एक दशक पहले तक पार्टी का जनाधार सिर्फ दलितों में ही नहीं बल्कि सूबे की अति पिछड़ी जातियों में भी था।

अब अगर परिवार को मायावती बढ़ावा अन्य पार्टियों की तर्ज पर दे रहीं हैं तो फिर बसपा कांशीराम की बनाई हुई पार्टी रह ही नहीं सकती। यह बात मायावती जी को स्वयं सोचना चाहिए कि जिस वजह से वह आज यहां पहुंची हैं उसको ही खत्म करना पार्टी के साथ कितना बड़ा विश्वासघात होगा?


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