BY-THE FIRE TEAM
2014 में क़रीब तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत वाली सरकार केंद्र में आई तो कहा गया कि मज़बूत अर्थव्यवस्था के लिए मज़बूत सरकार का होना ज़रूरी होता है.
नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार पर अर्थव्यवस्था और नीतियों को लेकर तीखे हमले बोलते थे.
मोदी कहते थे – इस सरकार में अनिर्णय की स्थिति है. वो भारतीय मुद्रा रुपए में डॉलर की तुलना में गिरावट को भी सरकार की कमज़ोरी बताते थे. अब जब केंद्र में मोदी की मजबूत सरकार है तो रुपया कमज़ोर क्यों है?
इस बात का ज़िक्र अक्सर होता है कि 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो रुपए और डॉलर की क़ीमत में कोई फ़र्क़ नहीं था. आज़ादी के बाद से अमरीकी डॉलर की तुलना में रुपए में गिरावट आती रही और आज की तारीख़ में एक डॉलर की क़ीमत क़रीब 73 रुपए के बराबर हो गई है.
भारतीय राजनीति में रुपए के गिरने को अब सरकार की प्रतिष्ठा से जोड़ा जाने लगा है. अगस्त 2013 में रुपया डॉलर की तुलना में हिचकोले खा रहा था तो तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने कहा था, ”रुपए ने अपनी क़ीमत खोई और प्रधानमंत्री ने अपनी प्रतिष्ठा.”
तब मई 2013 से सितंबर तक में रुपए में 17 फ़ीसदी की गिरावट आई थी.
मोदी ने जुलाई 2013 में रुपए में गिरावट पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर तंज कसते हुए कहा था कि गिरता रुपया मनमोहन सिंह की उम्र से होड़ कर रहा है. आज जब 68 साल के मोदी पीएम हैं तो रुपया उनकी उम्र से भी आगे निकल चुका है.
मनमोहन सिंह की सरकार गठबंधन की सरकार थी और कहा जाता है कि गठबंधन की सरकार में कड़े फ़ैसले लेना आसान नहीं होता, इसलिए अनिर्णय की स्थिति रहती है.
अब जब केंद्र में मोदी की मज़बूत सरकार है तो रुपया क्यों कमज़ोर हो रहा है? किसी देश की मुद्रा का कमज़ोर या मज़बूत होना वहां की सरकार से कितना नियंत्रित होता है?
मोदी सरकार भी लाचार
2018 में अब तक रुपए में 15 फ़ीसदी की गिरावट आ चुकी है. बिज़नेस इंडिया मैगज़ीन के अनुसार रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने रुपए की क़ीमत को काबू में करने के लिए इस साल 25 अरब डॉलर बाज़ार में डाला फिर भी कोई असर नहीं हुआ.
इस मैगज़ीन का कहना है कि अब भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी 400 अरब डॉलर हो गया है और इससे नीचे जाता है तो एक किस्म का मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ेगा.
वैश्विक अर्थव्यवस्था में किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत केवल घरेलू कारणों से ही प्रभावित नहीं होती है. अगर भारतीय मुद्रा रुपया कमज़ोर हो रहा है तो इसका कारण वैश्विक भी है.
एक सबसे बड़ा कारण है अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की बढ़ती क़ीमतें. अमरीका ने ईरान और वेनेज़ुएला के तेल निर्यात को प्रतिबंधित कर दिया है जिससे तेल की क़ीमत और बढ़ रही है.
2014 के बाद अंतरराष्ट्रीय मार्केट में कच्चे तेल की क़ीमत मंगलवार को सबसे ऊंचे स्तर 80 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई.
भारत अपनी ज़रूरत का 80 फ़ीसदी तेल आयात करता है. आरबीआई के अनुसार 2017-18 में भारत ने 87.7 अरब डॉलर तेल आयात पर खर्च किया. ज़ाहिर है तेल की क़ीमत बढ़ती है तो भारत के तेल का आयात बिल भी बढ़ता है और इसका सीधा असर विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ता है.
मतलब डॉलर की मांग बढ़ती है तो घरेलू मुद्रा का कमज़ोर होना लाजिमी है. कमज़ोर रुपया और अंतरराष्ट्रीय मार्केट में तेल की बढ़ती क़ीमत का असर ये होता है कि देश के भीतर पेट्रोल और डीज़ल महंगे हो जाते हैं. भारत के कई शहरों में अभी पेट्रोल की क़ीमत 90 रुपए प्रति लीटर तक पहुंच गई है.
मजबूत होता डॉलर या कमज़ोर होता रुपया ?
रुपए कमज़ोर होने पर जब सरकार निशाने पर आई तो वित्त मंत्री अरुण जेटली के उस बयान की ख़ूब खिल्ली उड़ाई गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि रुपया कमज़ोर नहीं हुआ है बल्कि डॉलर मज़बूत हुआ है.
कई आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था में तेज़ी आई है इसलिए डॉलर मज़बूत हुआ है. यूएस फेडरल रिज़र्व ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहा है ताकि अमरीका में निवेश को आकर्षक बनाया जा सके.
इसका नतीजा यह हो रहा है कि भारत जैसे उभरते बाज़ार से लोग पैसे निकाल रहे हैं. अमरीका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर का असर भी विकासशील देशों की मुद्राओं पर पड़ रहा है. केवल भारत ही नहीं बल्कि तुर्की और अर्जेंटीना की मुद्रा में भी गिरावट थम नहीं रही है.
भारत का चालू खात घाटा भी लगातार बढ़ा रहा है. मतलब भारत निर्यात से ज़्यादा आयात कर रहा है. भारतीय बाज़ार से एफ़पीआई निकालने का सिलसिला भी थम नहीं रहा है.
एफ़पीआई का मतलब फॉरन पोर्टफ़ोलियो इन्वेस्टर्स से है. मतलब विदेशी निवेशक अपना पैसा निकाल रहे हैं. नेशनल सिक्यॉरिटीज डिपॉजिटरी के आंकड़ों के अनुसार सिंतबर में 15,366 करोड़ की एफ़पीआई निकाली गई और 2018 में कुल 55,828 करोड़ रुपए की एफ़पीआई निकाल ली गई.
कमज़ोर होते रुपए का असर आम आदमी पर भी पड़ता है. पेट्रोल और डीज़ल महंगे हो जाते हैं. आयातित सामान महंगे हो जाते हैं. विदेशों से आयात किए जाने वाले कच्चे माल महंगे हो जाते हैं. हालांकि कमज़ोर मुद्रा के बारे में कहा जाता है कि इससे निर्यात को बढ़ावा मिलता है. ऐसे में रुपया का कमज़ोर होना ठीक है या मज़बूत?
रुपए की सेहत कैसी होगी यह विदेशी मुद्रा की आपूर्ति और मांग पर भी निर्भर करता है. मिसाल के तौर पर अगर कोई भारतीय कंपनी एक करोड़ डॉलर की कंप्यूटर सॉफ्टवेयर अमरीका से ख़रीदती है तो उसे डॉलर में ही भुगतान करना होगा.
देश में विदेशी मुद्रा यानी डॉलर की मांग बढ़ी है. ऐसा इसलिए है कि वस्तुओं और सेवाओं के आयात, विदेशी यात्रा, विदेश में निवेश, क़र्ज़ों का भुगतान और विदेशों में इलाज कराने वालों की तादाद बढ़ी है. इसकी भारपाई निर्यात से की जाती है, लेकिन भारत का निर्यात कम हुआ है.
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अभी मुश्किल यह है कि व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है. आरबीआई के अनुसार जून 2018 में ख़त्म हुई तिमाही में व्यापार घाटा बढ़कर 45.7 अरब डॉलर हो गया जो पिछले साल 41.9 अरब डॉलर था.
विदेश जाने वाले भारतीयों की तादाद बढ़ी
विदेशों में जाने वाले भारतीयों की संख्या भी बढ़ी है. अगर एक स्टू़डेंट अमरीका में एडमिशन लेता है तो हज़ारों डॉलर ख़र्च करने पड़ते हैं और ज़ाहिर है रुपए को देकर ही ये डॉलर मिलते हैं.
मतलब डॉलर की मांग बढ़ेगी तो रुपए कमज़ोर होगा. यानी डॉलर महंगा होगा तो रुपए ज़्यादा देने होंगे. आरबीआई के अनुसार 2017-18 में विदेशों में पढ़ने जाने वाले भारतीयों ने 2.021 अरब डॉलर ख़र्च किए.
आरबीआई के अनुसार 2017-18 में विदेशों में घूमने पर भारतीयों ने चार अरब डॉलर ख़र्च किए. अभी रुपया कमज़ोर है इसलिए विदेशों का सैर और महंगा हो गया है. सरकार का कहना है कि विदेशों से ग़ैरज़रूरी आयात को कम करना चाहिए ताकि डॉलर की मांग कम की जा सके.
अतीत के झटके
1966 में इंदिरा गांधी की सरकार ने डॉलर की तुलना में रुपए में 4.76 से 7.50 तक का अवमूल्यन किया था. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने कई एजेंसियों के दबाव में ऐसा किया था ताकि रुपए और डॉलर का रेट स्थिर रहे. यह अवमूल्यन 57.5 फ़ीसदी का था. सूखे और पाकिस्तान-चीन से युद्ध के बाद उपजे संकट के कारण इंदिरा गांधी ने यह फ़ैसला किया था.
1991 में नरसिम्हा राव की सरकार ने डॉलर की तुलना में रुपए का 18.5 फ़ीसदी से 25.95 फ़ीसदी तक अवमूल्यन किया था. ऐसा विदेशी मुद्रा के संकट से उबरने के लिए किया गया था. इसके बाद रुपए में गिरावट किसी भी सरकार में नहीं थमी. वो चाहे अटल बिहारी वाजपेयी पीएम रहे हों या अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह. और अब मज़बूत मोदी सरकार में भी यह सिलसिला थम नहीं रहा.
(यह लेख मुख्यतः बीबीसी हिंदी में प्रकाशित हुआ है।)