नयी दिल्ली, 27 अगस्त (भाषा) एक धर्मार्थ संगठन ने आज प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ ‘‘हितों का टकराव’’ का मुद्दा उठाने के लिए आज उच्चतम न्यायालय से बिना शर्त माफी मांग ली।
न्यायालय ने संगठन की माफी स्वीकार कर ली। इससे पहले न्यायालय ने “न्यायाधीशों को निशाना बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति” पर नाराजगी जतायी थी। शीर्ष अदालत ने संकेत दिया था कि संगठन पर 25 लाख रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है।
भारतीय मतदाता संगठन ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि संवैधानिक नैतिकता के विपरीत, प्रधान न्यायाधीश के एक रिश्तेदार जो ओडिशा से सांसद हैं, यहां अदालतों और न्यायाधिकरणों में एक वरिष्ठ वकील के रूप में वकालत कर रहे हैं । प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की पीठ ने संगठन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील विकास सिंह की दलीलों पर गौर किया और मामले को बंद कर दिया।
भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर संगठन ने यह अंतरिम याचिका दायर की थी। जनहित याचिका में सांसदों-विधायकों के वकील के रूप में वकालत करने पर प्रतिबंध की मांग की गई थी। अदालत ने नौ जुलाई को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
चूँकि न्यायालय न्याय के मंदिर की तरह हैं जिन पर जन समुदाय की उम्मीद टिकी होती है। ऐसे में यदि न्याय देने वाले न्यायाधीशों पर ही कटाक्ष होने लगे तो यह अप्रत्यक्ष रूप से उनकी गरिमा को धूमिल करती है । यह सही है कि न्यायाधीश विधि की रक्षा एवं उसका संरक्षण की शपथ लेते हैं फिर भी विगत वर्षों में कुछ ऐसे मामले भी प्रकाश में आए जब इनके विरुद्ध महाभियोग जैसी प्रक्रिया लायी गयी जैसे- कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन एवं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एम रामास्वामी, दीपक मिश्रा ।
हालांकि अभियोग लाए जाने से पूर्व ही सेन ने अपना इस्तीफा दे दिया . रामास्वामी और दीपक मिश्रा के विरुद्ध यह अभियोग पास ही नहीं हो सका। अभी कुछ वर्षों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीश- जे चेलमेश्वर ,रंजन गोगोई ,एमबी लोकुर तथा जोसेफ कुरियन ने अपने ही मुखिया के विरुद्ध प्रेस कांफ्रेंसिंग करके उनके तानाशाही रवैये की आलोचना कर दिया।
लोकतंत्र की ताकत तथा संविधान की ठोस संरचना के कारण ही ऐसा संभव हो सका .हमारा संविधान पूरी तरीके से चेक एंड बैलेंस पर आधारित है जो किसी भी शासन-प्रशासन के अंग को हावी नहीं होने देता । इस कॉन्फ्रेंस से देश में भी एक सकारात्मक संदेश गया कि न्याय के मामले में कोई अपनी मनमानी नहीं कर सकता ।
न्यायाधीशों को चाहिए कि अपनी छवि और गरिमा को बनाए रखें तथा ऐसी कोई हरकत ना करें जिससे इनके खिलाफ आलोचना अथवा याचिका दायर हो तथा तथा जनता का विश्वास टूटे और वे न्याय के पवित्र स्थल पर जाने से कतराएं।
साभार: पी टी आई न्यूज़ एवं द फायर टीम