ज्ञात तारीख के परिप्रेक्ष्य में समझिये आरक्षण कोई भीख नहीं है…

सन 1930, 1931, 1932, में लन्दन की गोलमेज कॉन्फ्रेंस में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने अछूतो के हक के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने वकालत की.

उन्होंने कहा आप लोग 150 साल से भारत में राज कर रहे हो, फिर भी अछूतों पर होने वाले जुल्म में कोई कमी नही ला सके हो तथा ना ही आपने छुआ-छूत को ख़त्म करने के लिए कोई कदम उठाया है.

भीमराव अंबेडकर भारत के दलित, शोषित और वंचित तबके को अधिकार दिलाने के लिए लंबे वक्त से लड़ रहे थे.अंग्रेजों ने भी अपने शासनकाल में देखा था कि हिंदू धर्म में अछूत समाज के साथ कैसा अमानवीय व्यवहार हो रहा है.

आजादी मिलने से काफी पहले 1908 से ही अंग्रेजों ने अपने प्रशासन में कम भागीदारी वाले जातियों को बढ़ाने के प्रयास शुरू कर दिए थे. हालांकि ये भी कहा जाता है कि ऐसा करके दरअसल अंग्रेज हिंदू धर्म को बांटने की साजिश रच रहे थे.

भारत सरकार अधिनियम 1909 में अछूत समाज के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया. इसके बाद बाबा साहब के प्रयासों की वजह से ब्रिटिश सरकार ने अलग-अलग जाति और धर्मों के लिए कम्यूनल अवॉर्ड की शुरुआत की.

1928 में साइमन कमीशन ने भी माना था कि भारत के शोषित समाज को शासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. इन प्रयासों के बाद 17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने कम्यूनल अवॉर्ड की शुरुआत की.

इसमें दलितों को अलग निर्वाचन का स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार मिला. इसके साथ ही दलितों को दो वोट के साथ कई और अधिकार मिले. दो वोट के अधिकार के मुताबिक देश के दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे.

बाबा साहब का मानना था कि दलितों को दो वोट का अधिकार उनके उत्थान में बहुत बड़ा कदम साबित होता. इसके साथ ही मैकडोनाल्ड अवॉर्ड में दलितों को शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में बराबर की हिस्सेदारी देने की बात भी थी. महात्मा गांधी अछूतों के अलग निर्वाचन का अधिकार मिलने का विरोध कर रहे थे,

महात्मा गांधी दलितों को दिए इन अधिकारों के विरोध में थे, महात्मा गांधी का मानना था कि इससे हिंदू समाज बंट जाएगा. महात्मा गांधी दलितों के उत्थान के पक्षधर थे लेकिन वो दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और उनके दो वोट के अधिकार के विरोधी थे.

महात्मा गांधी को लगता था कि इससे अछूत (दलित) हिंदू धर्म से अलग हो जाएंगे तथा हिंदू समाज और हिंदू धर्म विघटित हो जाएगा. दलित अधिकारों के विरोधी क्यों बन गए बापू ? इसके विरोध में पहले महात्मा गांधी ने अंग्रेज शासन को कई पत्र लिखे. लेकिन उससे भी बात नहीं बनी तो महात्मा गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया.

उन्होंने कहा कि वो अछूतों के अलग निर्वाचन के विरोध में अपनी जान की बाजी लगा देंगे. महात्मा गांधी के इस कदम से बाबा साहब भीमराव अंबेडकर दुखी थे. वो इसे अछूतों के उत्थान में मजबूत कदम मान रहे थे. अंग्रेजों ने अछूत समाज को अलग धर्म अलग समुदाय की पहचान देने की कोशिश की थी.

लेकिन पूना पैक्ट के बाद ये खत्म हो गया, हालांकि अछूतों के बड़े नेताओं ने पूना पैक्ट का विरोध किया था. अनशन की वजह से महात्मा गांधी की तबीयत लगातार बिगड़ने लगे. अंबेडकर पर अछूतों के अधिकारों से समझौता कर लेने का दबाव बढ़ने लगा. देश के कई हिस्सों में भीमराव अंबेडकर के पुतले जलाए गए.

उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए, कई जगहों पर सामान्य वर्ग के लोगों ने दलितों की बस्तियां जला डालीं. बाबा साहब को विरोध के आगे झुकना पड़ा और पूना पैक्ट की वजह से ही दलित अपने वास्तविक प्रतिनिधि चुनने से वंचित कर दिए गए.

उन्हें हिंदुओं द्वारा नामित प्रतिनिधि को चुनने के लिए मजबूर कर दिया गया. बाबा साहब भीमराव अंबेडकर 24 सितंबर 1932 को शाम 5 बजे पुणे की यरवदा जेल पहुंचे. यहां महात्मा गांधी और बाबा साहब अंबेडकर के बीच समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट कहा गया.

कहा जाता है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बेमन से रोते हुए पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते में दलितों के लिए अलग निर्वाचन और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया.

इसके बदले में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18 फीसदी कर दी गई.

बाबासाहेब ने गांधी जी से प्रश्न पूछा-अगर अछूत हिन्दुओं का अभिन्न अंग है, तो फिर उनके साथ जानवरों जैसा सलूक क्यों?

लेकिन गाँधी इसका कोई भी जवाब नही दे पाये…

 

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