सदियों से चीखती वह बेबस आवाज (वेश्या) जो आज जानवरों (गाय) के शोर के सामने दब गई

प्राप्त जानकारी के मुताबिक भारत में डेढ़ करोड़ वेश्याएं हैं, यह संख्या कई देशों की कुल जनसंख्या से भी अधिक है. हमारे देश में गंगा (नदी) माता है, गाय (पशु) माता है,

धरती (ज़मीन) माता है मगर औरत (इंसान) वेश्या है, और वेश्या भी एक-दो हज़ार नहीं, बल्कि पूरी डेढ़ करोड़. शांति से पार्कों में बैठे प्रेमी जोड़ों पर लाठी-डंडों के ज़रिये जबरन संस्कृति सिखाने वाले लोगों को कोठों पर भी जाना चाहिये,

ताक़ि अपने हाथों से तैयार की गई “वेश्या संस्कृति” का बदसूरत चेहरा देख सकें, उन कारणों को भी खंगालना चाहिए कि कौन सी मजबूरी है जिसकी वजह से प्रकृति की सर्वश्रेष्ट कृति को रोज अपना बदन नोचवाना पड़ता है.

भारत माता है अथवा पिता है, इस बेहुदा बहस के बीच ये सवाल भी पूरे ज़ोर से उठना चाहिये कि भारत माता हो या पिता मगर उसकी डेढ़ करोड़ संतानें वेश्या क्यों हैं.?

             रोज़ सहतीं हैं जो कोठों पे हवस के नश्तर
             हम “दरिन्दे” न होते, तो वो माँए होतीं

विषय तो गूढ़ है जिसका समाधान निकालना आज तक टेढ़ी खीर बनी हुई है. अब जरूरत इस बात की है कि हम यदि इक्कीसवीं सदी में भी इंसानी जज्बातों (स्त्रियों के दर्द) को नहीं समझ पाए तो हम विकास की चाहें कितने कुलाचें भर लें वो सब बेमानी होंगी.

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