जिनके आदिपुरुष ही दादा कोंडके हैं, उनके रूप को नहीं, सार को निहारिये part-1

पिछले शुक्रवार 16 जून को रिलीज हुयी 600 करोड़ की फिल्म “आदि पुरुष” के टपोरी संवादों पर हिंदी भाषी भारत में हुयी चर्चा, उन पर आई प्रतिक्रियाओं के दो आयाम हैं.

एक आयाम आश्वस्ति देता है और वह यह कि अभी, बावजूद सब कुछ के, भाषा के प्रति संवेदनशीलता और विवेक बचा हुआ है.

आम हिन्दुस्तानी, एक सीमा से ज्यादा भाषाई छिछोरापन सहन करने की स्थिति में कम-से-कम अभी तक तो नहीं पहुंचे हैं. यह अच्छी बात है- उम्मीद जगाने वाली बात है.

दूसरा आयाम है, इसका संवाद लेखक तक सीमित रह जाना. इस विमर्श का व्यक्ति केंद्रित हो जाना इसलिए उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करना रोग और विकार का सही निदान करना नहीं है.

जब बीमारी और उसका अकारण ही पता नहीं चलेगा तो स्वाभाविक ही उपचार में भी मुश्किल जायेगी. इस लिहाज से इस प्रसंग को थोड़ा सतह से नीचे खंगालकर देखने की आवश्यकता है.

यह हल्कापन सिर्फ मनोज मुन्ताशिर से “गर्व से कहो हम शुक्ला हैं” हुए संवाद लेखक की कारस्तानी भर नहीं हैं. उनसे भी यह अनजाने में, अनचाहे नहीं हुआ, इसे तो खुद शुकुल जी स्वीकार कर चुके हैं.

इस विधा में अपने से भी बड़े वाले अर्नब गोस्वामी से उसके टीवी पर हुयी हुयी सार्वजनिक बातचीत में उन्होंने कबूला कि “हां, बिलकुल ये कोई भूल नहीं है.

बहुत सोच-समझकर बजरंग बली के डायलॉग लिखे गए हैं. हमने जानबूझकर संवाद सरल किए हैं क्योंकि फिल्म के सभी किरदार एक ही तरह की भाषा नहीं बोल सकते, इनमें विविधता होनी चाहिए.”

वे यहीं तक नहीं रुके- उन्होंने डेढ़-दो हजार साल की रामायण वाचक पाठन परम्परा को भी अपने स्तर के अनुरूप नीचे दर्जे पर लाकर खड़ा कर दिया और दावा किया कि

“हम सब रामायण को कैसे जानते हैं? हमारे यहां कथा-वाचन की परम्परा है. एक तो पढ़ने की परम्परा है और दूसरी वाचन की.”

मैं एक छोटे से गांव से आया हूं, हमारे यहां दादियां-नानियां जब रामायण की कथा सुनाती थीं तो ऐसी ही भाषा में सुनाती थीं, जिस डायलॉग का आपने जिक्र किया.

इस देश के बड़े-बड़े कथावाचक और संत ऐसे ही बोलते हैं, मैं पहला शख्स नहीं हूं, जिसने ये डायलॉग लिखा है.”

मतलब यह कि बकौल शुकुल जी सरल होने का मतलब बम्बईया फिल्मों के चीफ ऑफ़ दि द्विअर्थी संवाद दादा कोंडके होना है- मतलब यह कि अश्लील होना ही सरल और सहज होना है.

वे किन संतों और प्रवचनकर्ताओं का जिक्र कर रहे हैं, इसका खुलासा तो उन्होंने नहीं किया लेकिन अब तक के सबसे अपशब्दी प्रवाचक धीरेन्द्र शास्त्री ने भी हनुमान या किसी और से ऐसे संवाद नहीं बुलवाये हैं.

उनका आशय किन “संतों” से है इसका जिक्र आगे करेंगे मगर अपनी विद्रूप अश्लीलता के लिए उन्होंने उन दादियों-नानियों को भी लपेटे में

ले लिया जिनका काम भाषा बिगाड़ने का नहीं बोल और वर्तनी सुधारने का होता था, होता है जिसे हम मातृभाषा कहते हैं.

उसमें ज्यादातर हिस्सा इन्हीं दादियों-नानियों का, कभी सीधे, तो कभी वाया माँ रहता था, रहता है. वे जितने भी छोटे गाँव से आये हों, यह बात गारंटी से कही जा सकती है कि उनकी दादी-नानी भी इस तरह के रूपक या उपमा इस्तेमाल नहीं करती होंगी.

फिर बंदे ने यह कला कहाँ से सीखी होगी? इसे समझना है तो रूप-यानि शुकुल जी-में नहीं सा-यानि उनकी कुल परम्परा-में जाना होगा.

उनके उस कुविचार परिवार में जाना होगा, जिसकी संगत में हुयी परवरिश में उन्होंने यह छिछोरपंती हासिल की है. संगत और परवरिश मनुष्यत्व भी छीनने की शक्ति रखती है;

यह सिर्फ काल्पनिक धारणा या कयासबाजी नहीं है, ऐसा हुआ है. मोगली की कहानी भी सच्ची है. स्वयं शुकुल जी जहां के हैं, वह पहले जिस सुल्तानपुर जिले का हिस्सा था,

सत्तर के दशक में उसके एक गाँव बसौढ़ी में मल्लाहों ने एक 9 वर्ष का बालक सियारों की मांद से निकाला था- जो उन्हीं की तरह रहता, बोलता था.

इसी दशक में लखनऊ में भी रामू नाम का बालक भेड़ियों की संगत से निकालकर अस्पताल में भर्ती किया गया था. इससे पहले आगरा के दीना शनीचर और पश्चिम बंगाल के

मिदिनापुर जिले में भी कमला व अमला नामक दो बच्चियां ना जाने किस तरह से अपने मां-बाप से बिछुड़कर भेड़ियों के चंगुल में पहुंच गई थीं.

इनकी कहानियां भी दुनिया भर में सुर्खियाँ बनी थीं. इन्हें पश्चिम बंगाल के मिदिनापुर जिले में भेड़िये की एक मांद से कोई सौ साल पहले सन 1920 में मुक्त कराया गया था.

 

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