यह वह कालखंड है, जब इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ अकेले 2023 के वर्ष में 94 पत्रकारों और मीडिया कर्मियों की हत्या हुयी.
इनमें 9 महिलायें भी शामिल थीं, खुद सरकार के अधूरे और बताने कम, छुपाने ज्यादा वाला आंकड़े मानते हैं कि पत्रकारों का उत्पीड़न और उन पर हर प्रकार के हमले बढे हैं.
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स नाम की अंतर्राष्ट्रीय संस्था के अनुसार अकेले 2018 के वर्ष में 248 पत्रकार कैद किये गए, 2020-23 के दौरान 64 पत्रकार लापता हुए हैं.
प्रेस और मीडिया की आजादी की निगरानी करने वाली दुनिया की जितनी भी स्वतंत्र संस्थाएं हैं, उन सभी के द्वारा जुटाए गए
आंकड़े एक ही तरह की प्रवृत्ति की तरफ इशारा करते हैं और वह है लोकतंत्र की इस सबसे जरूरी बुनियाद को ध्वस्त करने की दिशा में सत्ता में बैठे समूह का लगातार तेज से तेज होती गति से आगे बढ़ना.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स सहित अन्य प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा दुनिया भर के देशों में प्रेस की दशा का आंकलन कर विश्व स्वतंत्रता सूचकांक तैयार किया जाता है.
इसके लिए कई आधार तय किये गए हैं। इनकी रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल यानि 2023 में भारत के 100 में से 36.62 अंक आये थे.
इस तरह वह जिन 180 देशों में यह सर्वेक्षण किया गया, उनमें 161वें नम्बर पर था. यह अत्यंत खतरनाक स्थिति है.
इसलिए और अधिक खतरनाक कि पिछली वर्ष की रैंक 150 से यह एक ही वर्ष में 11 की छलांग लगाकर और नीचे गयी है.
यह तब है, जब भारत का संविधान प्रेस और मीडिया की आजादी को नागरिकों के बुनियादी अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में रखता है
और उसकी धारा 19(1)(अ) इसकी गारंटी करती है. भारत का सर्वोच्च न्यायालय इससे भी आगे जाता है: वर्ष 1950 में रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के
अपने फैसले में कोर्ट ने कहा था कि “प्रेस की स्वतन्त्रता सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का आधारभूत तत्व है.“
देश में किसान आन्दोलन का सर्वश्रेष्ठ कवरेज करने वाले मीडिया संस्थान न्यूज़क्लिक पर हमले, गढ़े हुए आरोपों के आधार पर
उसके संस्थान पर तालाबंदी और बाद में इसके संस्थापक सम्पादक प्रवीर पुरकायस्थ सहित कुछ पत्रकारों की गिरफ्तारी के बाद 10 अक्टूबर, 2023 को
लिखे अपने सम्पादकीय में ‘द हिन्दू’ ने लिखा था कि प्रेस और मीडिया की आजादी के जो पाँचों आधार हैं, वे असुरक्षा में हैं.
‘द हिन्दू’ ने जो आधार गिनाये थे, उनमें सेंसरशिप से आजादी, सूचना तक पहुँच, सम्पादकीय स्वतंत्रता, स्रोतों की सुरक्षा और बहुलवाद तथा विविधता का पालन शामिल हैं.
इन सबमे गिरावट का अर्थ है, सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं की बुनियाद का खोखला किया जाना. पूँजी–जो अपने अंतिम निष्कर्ष में अपने मुनाफे के लिए
बर्बर से बर्बरतम अपराध करने से बाज नहीं आती–वह पूँजी नवउदारीकरण के बाद और भी खूंखार हुयी है.
दुनिया भर के मीडिया घरानों, अख़बारों और पत्रकारों की जिन्दगी मुहाल हुई है. उनके द्वारा सेंसरशिप थोपने और सही सूचनाओं के जनता
तक पहुँचने से रोकने का एक मुफीद जरिया इन संस्थानों को अपने कब्जे में ले लेना है. इस वर्ष की शुरुआत में अम्बानी का रिलायंस समूह 72 टीवी चैनल्स का मालिक था,
इस वर्ष में यह संख्या 100 होने वाली है. एनडीटीवी के अधिग्रहण के बाद अडानी समूह भी इस धंधे में कूद चुका है जो इनके स्वामित्व में नहीं हैं.
उनमें भी इनका पैसा लगा हुआ है और ये उसके सम्पादकीय रुझान, कवरेज और कंटेंट को निर्धारित करते हैं.
इन दोनों से बाहर आने वाली श्रेणी वाले मीडिया–टीवी और अखबार और अब तो यू ट्यूब और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भी–की बांह उन्हें विज्ञापन देकर या रुकवाकर मरोड़ी जाती है.
नतीजे में इन और इनके आकाओं की विफलताओं और लूटों की भनक तक नहीं लगने दी जाती. कट्टरपंथी हुडदंगिये एक और किस्म है, जो डरा-धमकाकर
और अपनी सरकार से डंडा चलवाकर ख़बरों के दायरे और सामग्री दोनों को प्रभावित करती है. इन दिनों इन्हें हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता के नाम से जाना जाता है
और इनका और कारपोरेट का विषाक्त गठबंधन इस समय सत्ता में हैं. जाहिर है प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाना है, तो इन्हें इनकी शक्ति से वंचित करना ही होगा.
चूंकि प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधारभूत हिस्सा है, लिहाजा इन्हें सत्ता से हटाकर ही लोकतंत्र भी बचेगा–संविधान भी बचेगा.
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)