(भगत सिंह जयंती पर विशेष आलेख)
भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को फांसी दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी.
उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद को ललकारा, मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाई लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे,
जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के
तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले. निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच
असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था.
इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया
और अपने विषद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ.
अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे ‘लेनिन की जीवनी‘ को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था.
उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह क्रांतिकारी थे, जिन्होंने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनिया में पहली बार किसी देश में
मजदूर-किसान राज की स्थापना की थी, सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था.
लेनिन के नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था. इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता है.
स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर ही ऐसे
समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जहां मनुष्य, मनुष्य का शोषण न कर सके. अपने वैज्ञानिक अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के
आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह काम कोई बुर्जुआ-पूंजीवादी दल नही कर सकता, बल्कि केवल और केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है.
इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठन, ऐसी पार्टी और जनसंगठनों के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबकों की
उनकी ज्वलंत मांगों और समस्याओं के इर्द-गिर्द जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है.
व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये.
‘नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम’ पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार से खुलासा किया है.
इस प्रकार, भगत सिंह हमारे देश की आजादी के आंदोलन के क्रांतिकारी-वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की आजादी की लड़ाई को
केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नही रखा, बल्कि उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता तथा पूंजीवादी-सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा.
मानव समाज के लिए ऐसी मुक्ति तभी संभव है, जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये,
जातिवाद का समूल नाश हो, धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय.
ऐसा सामाजिक न्याय जो जाति प्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री-पुरूष असमानता को खत्म करें, व्यापक भूमि सुधारों के बल पर
सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ लड़कर ही हासिल किया जा सकता है. भारतीय समाज बहुरंगी है, कई धर्म,
कई भाषाएं हैं, सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती रही है. लोगों के पहनावे ,खान-पान तथा आचार-व्यवहार भी अलग-अलग है.
इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति है, हमारी विविधता में एकता यही है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएं, सुख-दुख, आशा-आकांक्षाएं एक है.