कहते हैं‚ आज की दुनिया में सब अपना–अपना स्वार्थ देखते हैं. अमीर तो अमीर‚ गरीब भी. बताइए‚ मोदी जी को खुद अपने मुंह से यह कहना पड़ा कि
वह तो गरीबों को खोज–खोज कर उनके लिए घर बनवा रहे हैं, पक्के घर बनवा रहे हैं. हजार–दो हजार नहीं‚ लाख–दस लाख नहीं‚ पूरे चार करोड़ घर बनवा चुके हैं.
पर अफसोस कि अपना एक घर भी नहीं बनवा पाए और अफसोस पर अफसोस ये कि किसी ने झूठे को एक बार पूछा तक नहीं कि सारे गरीबों के घर बनवा रहे हो‚ एक अपना भी बनवा लेते‚ छोटा सा.
खुद ही कहना पड़ा–काश अपना भी एक घर बनाया होता! अमीरों की हम नहीं कहते‚ पर कम–से–कम गरीबों को तो शर्म करनी चाहिए.
अमीरों की कोठियां बनवाई हों तो बनवाई हों‚ घर तो मोदी जी ने गरीबों के ही बनवाए हैं. सोचने की बात है कि एक बंदा है, जो तुम्हारे पक्के घर बनवा रहा है.
नौ साल से लगातार बनवा रहा है, बनवाए ही जा रहा है‚ बनवाए ही जा रहा है और तुम्हें इसका ख्याल तक नहीं आया कि वह गरीब खुद किस हाल में रह रहा है.
उसने अपना घर बनवाया है या नहीं? सबसे पहले न सही‚ बीच में या बाद में ही सही‚ बंदे ने अपने लिए एक घर भी बनवाया है या बेघर का बेघर ही बना हुआ है.
खुद को गरीब कहने वालों से क्या अपना ख्याल रखने वाले का इत्तू-सा ख्याल रखने की भी उम्मीद नहीं की जानी चाहिएॽ बात पैसे की नहीं है, बात दिल की है.
बंदे ने चार करोड़ को बेघर से घरवान बनाया है, चार करोड़ तो अगर शुक्राने का एक–एक रुपया‚ सिर्फ एक–एक रुपया भी निकालते‚ तो सब के घर बनवाने वाले का भी‚
कम से कम पांच–छह बेडरूम का घर तो बन ही सकता था. सब के घर बनाने वाला भी‚ घरवान हो सकता था पर वो हो न सका!
खैर अभी भी टाइम है, लक्ष्मी जी से प्रार्थना है कि इस दीवाली बाकी सब के हिस्से की धनवर्षा स्थगित कर‚ मोदी जी के लिए एक अच्छा सा महल बनवा दें.
भारत वर्ष की इज्जत का सवाल है, दुनिया की तीसरी सबसे अमीर इकोनॉमी बनने चले हैं और सुप्रीम लीडर बेघर‚ बेचारा; बड़ी बेइज्जती की बात हो जाएगी‚ माते!
{व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं}