कौन सी दिशा में बढ़ने को प्रगति कहना चाहिए, इसका कोई पैमाना नहीं है क्योंकि समय के साथ बहुत चीजों के मायने बदल जाते हैं.
मसलन गाँवों का शहरों में परिवर्तित हो जाना, पैरों तले मिट्टी की जगह सीमेंट का या जाना, खेतों में फसलों की जगह इमारतों का उगना,
इंसानों का इंसानों के साथ कम जुड़ाव होना, डिवाइसेज के साथ ज्यादा लगाव होना, क्या ये सभी प्रगति के मायने हैं?
इसका जवाब शायद सभी की नजरों में अलग-अलग हो सकता है लेकिन एक बात तो तय है कि जिस दिशा में बढ़ने से हमारे साथी पीछे छूट जाएं
या फिर कमजोर लोग और कमजोर होते जाएं, उसे प्रगति की उपाधि तो नहीं दी जा सकती है. जहाँ इंसान को अपने ही देश के संविधान से संबंधित अधिकारों से वंचित रखा जाए,
जहां अपने से अलग विचार रखने वाले लोगों को रौंदा जाए, उस दिशा में बढ़ने को प्रगति नहीं कह सकते. मैं तो बिल्कुल नहीं कह सकता हूँ.
इस प्रगति की दौड़ से बाहर निकलकर हमें शांति से बैठकर यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम उसी दिशा में तो नहीं जा रहे हैं जहां से आने में हमें सालों लगे हैं.
इंसान बनिए, सभ्य बनिए…