सत्य शोधक समाज की शिक्षाएं पिछड़े समाज के लिए कैसी भूमिका निभा रही हैं?

ज्योतिबा राव फुले ने समाज परिवर्तन के आंदोलन को संगठित रूप से आगे बढ़ाने के लिए 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्य शोधक समाज’ की नींव रखी.

उन दिनों समाज सुधार का दावा करने वाले कई संगठन काम कर रहे थे. उनमें ‘ब्रह्म समाज’ (राजा राममोहन राय), ‘प्रार्थना समाज’ (केशवचंद सेन), पुणे सार्वजनिक सभा (महादेव गोविंद रानाडे) आदि प्रमुख थे.

लेकिन वे सभी द्विजों द्वारा, द्विजों की हित-सिद्धि के बनाए गए थे. उनकी कल्पना में पूरा भारतीय समाज नहीं था. वे चाहते थे कि समाज में जाति रहे लेकिन उसका चेहरा उतना क्रूर और अमानवीय न हो.

इसी क्रम में 1875 में बने आर्य समाज का नाम भी आता है जो वेदों की ओर लौटने का बात कर रहा था. शूद्रों-अतिशूद्रों की शिक्षा को लेकर राजा राममोहन राय और केशवचंद सेन

दोनों के विचार थे कि पहले समाज के उच्च वर्गों में शिक्षा के न्यूनतम स्तर को प्राप्त कर लिया जाए. ऊपर के स्तर पर शिक्षा अनुपात बढ़ेगा तो उसका अनुकूल प्रभाव निचले स्तर पर भी देखने को मिलेगा.

अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘रिसाव का सिद्धांत’ या ट्रिकल डाउन थ्योरी कहते हैं. इसके अनुसार, ऊपर के वर्गों की समृद्धि धीरे-धीरे रिसकर समाज के निचले वर्गों तक पहुंचती रहती है.

किन्तु ऐसा सोचने वाले ये भूल जाते थे कि प्राचीन काल में जब हर द्विज बच्चे को अनिवार्यतः गुरुकुल जाना पड़ता था, तब ब्राह्मणों का शिक्षानुपात लगभग शत प्रतिशत होता था.

वहीं, निचली जातियों का शिक्षानुपात शून्य पर टिका रहता था. यानी शिक्षा के क्षेत्र में ट्रिकल डाउन थ्योरी भारत जैसे देश में सफल नहीं हो सकती

क्योंकि ये जन्म से ही निर्धारित हो जाता था कि कौन पढ़ेगा और कौन श्रम करेगा और कौन शिक्षा प्राप्त करने वालों की सेवा करेगा.?

सत्य शोधक समाज के उद्देश्य:

सत्य शोधक समाज के प्रमुख उद्देश्य थे- शूद्रों-अतिशूद्रों को पुजारी, पुरोहित, सूदखोर आदि की सामाजिक-सांस्कृतिक दासता से मुक्ति दिलाना,

धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यों में पुरोहितों की अनिवार्यता को खत्म करना, शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करना, ताकि वे उन धर्मग्रंथों को स्वयं पढ़-समझ सकें,

जिन्हें उनके शोषण के लिए ही रचा गया है. सामूहिक हितों की प्राप्ति के लिए उनमें एकजुटता का भाव पैदा करना, धार्मिक एवं जाति-आधारित उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना,

पढ़े-लिखे शूद्रातिशूद्र युवाओं के लिए प्रशासनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना आदि. कुल मिलाकर ये सामाजिक परिवर्तन (ना कि समाज सुधार) के घोषणापत्र को लागू करने का कार्यक्रम था.

सत्य शोधक समाज का फैलाव:

शूद्रों और अतिशूद्रों का ज्योतिबा फुले पर भरोसा था. इसकी सबसे बड़ी वजह शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके काम थे इसलिए सत्य शोधक समाज को उन्होंने हाथों-हाथ लिया.

कुछ ही वर्षों में उसकी शाखाएं मुंबई और पुणे के शहरी, कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्रों में खुलने लगीं. एक दशक के भीतर वह संपूर्ण महाराष्ट्र में पैठ जमा चुका था.

समाज की सदस्यता सभी के लिए खुली थी, फिर भी मांग, महार, मातंग, कुनबी, माली जैसी अस्पृश्य एवं अतिपिछड़ी जातियां तेजी से उससे जुड़ने लगीं.

लोगों ने विवाह, नामकरण आदि अवसरों पर पुरोहितों को बुलाना छोड़ दिया. इससे ब्राह्मण पुजारियों ने निचली जातियों को यह कहकर भड़काना शुरू कर दिया कि

बिना पुरोहित के उनकी प्रार्थनाएं ईश्वर तक नहीं पहुंच पाएंगी. घबराए हुए लोग फुले के पास गए. फुले ने उन्हें समझाया कि तमिल, बंगाली, कन्नड़ आदि

गैर-संस्कृत भाषी लोगों की प्रार्थनाएं ईश्वर तक पहुंच सकती हैं, तो उनकी अपनी भाषा में की गई प्रार्थना को ईश्वर भला कैसे अनसुना कर सकता है?

उन्होंने कहा कि जहां बहुत जरूरी हो, वहां अपनी ही जाति के अनुभवी व्यक्ति को पुरोहित की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है. स्वयं फुले ने कई अवसर पर पुरोहिताई की.

बिना पुरोहित के विवाह-संस्कार:

इस संदर्भ में एक प्रसंग बेहद दिलचस्प है. एक परिवार में शादी होने वाली थी. पुरोहितों ने घर आकर डराया कि बिना ब्राह्मण एवं संस्कृत मंत्रों के हुआ विवाह ईश्वर की दृष्टि में अशुभ माना जाएगा.

उसके अत्यंत बुरे परिणाम होंगे. गृहिणी सावित्रीबाई फुले को जानती थी. फुले को पता चला तो उन्होंने सत्य शोधक समाज के बैनर तले विवाह संपन्न कराने का ऐलान कर दिया.

सैकड़ों सदस्यों की उपस्थिति में वह विवाह खुशी-खुशी संपन्न हुआ. एक अन्य घटना में पुरोहितों ने घुड़सवार भेजकर दूल्हे के पिता को धमकी दिया,

लोगों को यह कहकर भड़काया कि फुले उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं. लेकिन फुले इन धमकियों से कहां डरने वाले थे? अप्रिय घटना से बचने के लिए उन्होंने प्रशासन से मदद मांगी. पुलिस की निगरानी में वह विवाह सफलतापूर्वक संपन्न हो सका.

लोगों तक बातें पहुंचाने का निराला अंदाज:

इसका एक रोचक किस्सा रोजलिंड ओ हेनलान ने अपनी पुस्तक में दिया है. एक बार फुले अपने मित्र ज्ञानोबा सासने के साथ पुणे के बाहर स्थित एक बगीचे के भ्रमण के लिए गए.

वहां एक कुआं था जिससे उस बगीचे की सिंचाई होती थी. जैसे ही दोपहर का अवकाश हुआ, सभी मजदूर खाना खाने बैठ गए. यह देख फुले कुएं तक पहुंचे और कुएं के डोल को चलाने लगे.

काम करते-करते उन्होंने गाना भी शुरू कर दिया. मजदूर उन्हें देखकर हंसने लगे. फुले ने उन्हें समझाया, ‘इसमें हंसने जैसा कुछ नहीं है?

मजदूर लोग काम करते हुए अकसर गाते-बजाते हैं. केवल मेहनत से जी चुराने वाले लोग ही फुर्सत के समय वाद्ययंत्रों का शौक फरमाते हैं.

असली मेहनतकश जैसा काम करता है, वैसा ही अपना संगीत गढ़ लेता है. ‘मेहनतकश जैसा काम करता है, वैसा ही अपना संगीत गढ़ लेता है.’

सत्य शोधक समाज के माध्यम से फुले ने शूद्रों और अतिशूद्रों को अपने विकास और मान-प्रतिष्ठा अर्जित करने का जो रास्ता करीब 146 वर्ष पहले दिखाया था, सामाजिक न्याय के संदर्भ में वह आज भी  उतना ही जरूरी और प्रासंगिक है.

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