तीन तलाक पर बना कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए राहत है या आफत…?


BY- SAEED ALAM KHAN


आखिरकार एक लम्बे जद्दोजहद और विरोध-अवरोध के बाद खुद को महिलाओं का तरफदार बताने वाली बीजीपी ने उनके पक्ष में तीन तलाक विधेयक को पारित कराने के लिए अंतिम लड़ाई भी राज्यसभा में लड़कर जीत लिया है.

आपको बता दें कि जब से यह कानून पारित हुआ है तभी से इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं की समीक्षा लोगों के द्वारा की जा रही है.

इसी संदर्भ में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा है कि- मैं तीन तलाक कानून का स्वागत करती हूँ. मुस्लिम महिलायें लम्बे वक़्त से इस कानून का इंतजार कर रही थीं. किसी ठोस कानून के न होने से उनको न जाने कैसी-कैसी यातनाएं सहनी पड़ती थीं.

 

यहाँ तक कि उनको मिनटों में घर से बाहर निकलना पड़ता था, निश्चित तौर पर यह एक ऐतिहासिक कदम है जो मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार को रोकेगा.

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए रेखाजी ने कहा है कि- अब मुस्लिम पुरुष अपनी बीवी को छोड़ने से पहले दो-चार बार अवश्य सोचेंगे, यह महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा कदम है.

हालाँकि इस कानून के पारित होने से पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया था किन्तु फिर भी मुस्लिम पतियों ने धड़ल्ले से अपनी पत्नियों को तलाक देते रहे हैं.

हद तो तब हो जाती थी जब बिना विचार किये उन्हें  रातों-रात उनको घर से बाहर भी कर देते थे, न उनको आर्थिक मदद मिलती और न ही क़ानूनी, जिसकी वजह से उनका शोषण होता रहा.

यही कारण है कि मुस्लिम महिलाओं ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर इसका विरोध किया था. इस कानून के विरोधियों का कहना है कि यह कानून धर्म विशेष को लक्षित करके पारित किया गया है.

इस राय के विपरीत वरिष्ठ पत्रकार फ़रहा नकवी इस कानून को महिलाओं के लिए हितैषी नहीं मानती हैं. उनका कहना है कि शादी और तलाक सिविल मामले हैं तथा घरेलू हिंसा कानून पहले से ही विद्यमान हैं.

ऐसे में किसी नए कानून की नहीं बल्कि उन्हें ही सख्ती से लागु करने की जरूरत थी. अगर तलाक के जुर्म में पति को तीन वर्ष की कैद हो जाएगी तो महिला की सुरक्षा कौन करेगा ?

आज जब देश में मॉब लिंचिंग के नाम पर निर्दोष लोगों को भीड़ अपना निशाना बना रही है, मुस्लिम समुदाय को जिस कदर बेवजह प्रताड़ित किया जा रहा है,

जिसके कारण वे खुद को दोयम दर्जे का नागरिक समझ रहे हैं, अगर इन सभी मामलों पर विचार करके कार्यवाही होती तो ज्यादा बेहतर होता.

इन वक्तव्यों के आधार पर निष्कर्ष चाहें जो निकाला जाए किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि इस विधि ने मुस्लिम महिलाओं को एक आत्मबल जरूर दिया है,

जिसका इजहार इन महिलाओं ने एक दूसरे को मिठाई खिलाकर और ढोल बजाकर किया है.

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साथ ही यह उन पुरुषों के लिए भी एक सबक है जो अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए तलाक को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे.

जहाँ तक इस कानून के प्रभाव की बात है तो इसका पता बाद में ही चल पाएगा और कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी.


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