हिंदू धर्म के भीतर जाति और उससे जुड़ी छूत-अछूत की समस्या पर फुले-आंबेडकर की शैली में तीखी टिप्पणी करते हुए भगत सिंह लिखते हैं-
“कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में नि:संग फिरता है लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है.”
अछूत समस्या पर अपने इस लंबे लेख में वे इस समस्या के निदान के उपायों पर भी विचार करते हैं.
वे कहते हैं कि “सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि सभी इंसान समान हैं. न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ है और न ही कार्य-विभाजन से.
वे हिंदुओं के पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धांत को जाति व्यवस्था कोे जायज ठहराने और जो लोग इसका शिकार हैं, उनकी स्वीकृति प्राप्त करने का उपाय मानते हैं.
जाति व्यवस्था से पैदा हुई ‘अछूत समस्या’ ने किस तरह श्रम करने वालों से घृणा करना सिखाया.?
भगत सिंह का मानना था कि इस समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि जिन्हें अछूत कहकर अपमानित किया गया है, वे लोग भी खुद को संगठित करके इसके खिलाफ खड़े हों.
वे लिखते हैं, “यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता, जितने समय तक ‘अछूत’ कौमें अपने को संगठित न कर लें.”
भगत सिंह ‘अछूतों’ द्वारा संगठित होकर अलग प्रतिनिधित्व की मांग का भी समर्थन करते हुए लिखते हैं,
“हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना या मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की मांग करना बहुत आशाजनक संकेत है.”
फिर वे भारतीय इतिहास में अछूत कहे जाने वाले समाज की शानदार भूमिका को रेखांकित करते हुए उनसे संगठित होने का आह्वान करते है.
इस संदर्भ में वे लिखते हैं, “हम तो साफ कहते हैं कि उठो. अछूत कहे जाने वाले असली जन सवेकों तथा भाइयों! उठो, अपना इतिहास देखो.
गुरु गोविन्द सिंह की फौज की असली शक्ति तुम्हीं थे. शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है.
तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं, उठो अपनी शक्ति पहचानो. संगठनबद्ध हो जाओ. असल में स्वयं की कोशिश के बिना कुछ भी नहीं मिलेगा.”
इतना ही नहीं, वे ‘अछूत ’ कही जाने वाली कौम से यह भी कहते हैं कि बिना शक्तिशाली बने और जो तुम्हें अछूत समझते हैं, उन्हें अपनी ताकत दिखाए, समानता का अधिकार हासिल नहीं किया जा सकता है.
भगत सिंह आगे कहते हैं, “कहावत है- ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’ अर्थात संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दो.
तब देखना, कोई भी तुम्हारे अधिकारों को देने से इंकार करने की जुर्रत न कर सकेगा, तुम दूसरों का खुराक मत बनो, दूसरों के मुंह की ओर मत ताको.”
वे मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र की तर्ज पर दलितों (अछूतों) का आह्वान करते हैं कि “संगठनबद्ध हो जाओ, तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी, बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी.
उठो, वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ बगावत खड़ी कर दो. धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा.
सामाजिक आंदोलनों से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीति और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो. तुम ही देश का मुख्य आधार हो, सोए हुए शेरों ! उठो और बगावत कर दो.”
आगे मेहनतकश जनता का आवाहन करते हुए लिखते हैं कि “हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह युद्ध तब तक चलता रहेगा
जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे. चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति, अंग्रेज शासक या फिर विशुद्ध भारतीय ही हों.
इन्होंने आपस में मिलकर एक लूट मचा रखी है. यदि शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता.”
(अजय असुर की कलम से)