डंका तो बज रहा है, पर बदनामी का-आलेख: राजेंद्र शर्मा (PART-1)

बहुत शोर है कि मोदी के राज में दुनिया भर में भारत का डंका बज रहा है. खुद प्रधानमंत्री मोदी कई मौकों पर अपने मुंह से कह चुके हैं कि पहले तो लोग भारत में पैदा होने पर

शर्म महसूस करते थे, पर अब गर्व करते हैं. वह भारत को विश्व गुरु बनाने के इशारे करते रहे हैं. उसे विशेष रूप से आर्थिक, सैन्य और सांस्कृतिक महाशक्ति बनाने के दावे करते रहे हैं.

विदेश मंत्री, एस जयशंकर ने अभी पिछले ही दिनों दावा किया था कि अब “कोई भी बड़ा वैश्विक मुद्दा, भारत की सलाह के बिना तय ही नहीं होता है.”

लेकिन, अगर यही सच है तो विदेश मंत्री के उक्त दावे के करीब ही अर्थ द्वारा प्रकाशित, एक cr  सैंतीस लाख से ज्यादा लोगों के सर्वे में,

67 फीसद लोगों की यह राय क्यों थी कि बड़ी ताकतों में भारत की आवाज का ही विश्व के भू-राजनीतिक मामलों में सबसे कम असर है.

दूसरी ओर अमेरिका के संबंध में ऐसा ही मानने वाले सिर्फ 11 फीसदी थे, जबकि चीन के मामले में ऐसा मानने वाले 13 फीसदी और रूस के मामले में ऐसा मानने वाले 15 फीसदी.

किसी देश के प्रभाव का एक और पैमाना, उसके पासपोर्ट को अन्य देशों में मिलने वाला वजन माना जाता है. लेकिन, हैंकले पासपोर्ट इंडैक्स पर भारत, अब 85वें स्थान पर है.

पिछले साल के मुकाबले भी भारत एक स्थान नीचे ही खिसका है. वास्तव में इसमें हैरानी की कोई बात भी नहीं है, क्योंकि विश्व में भारत का डंका बजने का,

प्रधानमंत्री मोदी के विदेश दौरों के समय, प्रवासी भारतीयों को जुटाकर किए जाने वाले प्रायोजित ईवेंटों के अलावा, कोई कारण भी नहीं है.

बेशक, अपने आकार के चलते भारत, दुनिया की चौथी बड़ी सैन्य शक्ति है. इसी प्रकार, आकार से ही जुड़ा भारत का सकल घरेलू उत्पाद,

उसे दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में पांचवें स्थान पर पहुंचा देता है और वर्तमान विकास दर से, अगले पांच साल में भारत के तीसरे स्थान पर पहुंच जाने में भी,

जिसकी ‘मोदी की गारंटी’ का बहुत शोर है, हैरानी की कोई बात नहीं होगी. लेकिन, इन गिनतियों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि प्रतिव्यक्ति आय के

पैमाने से वही भारत, 197 देशों में 142वें स्थान पर है. जाहिर है कि किसी देश की सामर्थ्य का कहीं वास्तविक परिचायक, यही स्थान है.

हैरानी की बात नहीं है कि जनता की वास्तविक दशा को दर्शाने वाले सभी महत्वपूर्ण सूचकांक, भारत का डंका बज रहे होने की नहीं, उसकी दुर्दशा की ही कहानी कहते हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ की पांच एजेंसियों द्वारा खाद्य सुरक्षा तथा पोषण पर 2023 में तैयार की गई रिपोर्ट बताती है कि 74.1 फीसद यानी करीब 1.043 अरब भारतीय,

सर्वे के वर्ष 2021 में, एक स्वस्थ खुराक हासिल करने में असमर्थ थे. इसी रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2020-22 के दौरान भारत की 16.6 फीसद आबादी कुपोषित थी.

यह भी गौरतलब है कि ग्लोबल हंगर इंडैक्स पर भारत, 2022 में 107वें स्थान पर था और ग्लोबल फूड सिक्यूरिटी इंडैक्स पर, 68वें स्थान पर.

इन्हीं हालात का नतीजा हाल में तीन ऐसी अतियों के रूप में भी देखने को मिला है, जो बाकी दुनिया में भारत की बदहाली का डंका बज रहे होने की ही संकेतक हैं.

इनमें एक का संबंध, यूक्रेन युद्घ में रूसी सेना की ओर से झोंके गए कुछ भारतीयों के हताहत होने की धीरे-धीरे आ रही खबरों से है.

जाहिर है कि भारी मुश्किलों तथा मजबूरियों के चलते ये भारतीय नागरिक, रूसी सेना के सहायकों के रूप में काम करने पहुंचे थे और किसी प्रकार उन्हें युद्घ के खतरों के बीच झोंक दिया गया.

इसी का दूसरा रूप, इजरायल-फिलिस्तीन युद्घ के बीच, इजरायल की मांग पर, वहां गिरमिटिया बनाकर भारतीय मजदूरों के भेजे जाने का है,

जिसमें भाजपा की केंद्र तथा हरियाणा व उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों की, सक्रिय हिस्सेदारी है. इन मजदूरों के युद्घग्रस्त देश में जाने पीछे की मजबूरी का अंदाजा

एक मजदूर के इस चर्चित कथन से लगाया जा सकता है कि, ‘यहां भूख से मरने से तो, इजरायल में लड़ाई में मरना ही बेहतर है.’

तीसरा रूप, पिछले ही दिनों डंकी मारकर अवैध रूप से अमेरिका में प्रवेश करने की कोशिश करते हुए एक गुजराती भारतीय परिवार के मारे जाने के बाद आई,

इस आशय की खबरों का है कि अवैध रूप से अमेरिका में प्रवेश करने वालों में अब, भारतीयों की संख्या ही सबसे बड़ी है. क्या यही विश्व गुरु बनने के लक्षण हैं?

 

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