पुलवामा त्रासदी और उसका चुनावी एडवांटेज: राजेंद्र शर्मा (PART-1)

पुलवामा की त्रासदी का भूत, चार साल बाद एक बार फिर परेशान करने के लिए, मोदी सरकार के सामने आ खड़ा हुआ है.

पुलवामा की त्रासदी और उसके साल भर बाद, जम्मू-कश्मीर के विभाजन, उसका दर्जा घटाए जाने तथा धारा-370 के पूरी तरह से इकतरफा तरीके से खत्म किए जाने के समय,

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक के, हिंदी के एक यू-ट्यूब चैनल और वरिष्ठ पत्रकार, करण थापर को हाल में दिए गए साक्षात्कारों ने,

पुलवामा के सिलसिले में अब तक अनुत्तरित बने रहे कडुए सवालों को, फिर से सामने लाकर खड़ा कर दिया है. बेशक, मोदी सरकार ने इस साक्षात्कार से उठने वाले

सवालों का किसी भी तरह से जवाब देने के बजाए, मुख्यधारा के मीडिया पर अपने लगभग पूर्ण नियंत्रण का सहारा लेकर, इन साक्षात्कारों की खबर को ही पूरी तरह से ब्लैक आउट कराने के जरिए,

एक बार फिर इन अप्रिय सवालों को आम लोगों तक नहीं पहुुंचने देने के जरिए, दफ्र करने की ही कोशिश की है.

लेकिन देश की राजनीतिक हवा का रुख धीरे-धीरे बदलने की पृष्ठभूमि में ये सवाल, मौजूदा सत्ताधारियों का आसानी से पीछा छोड़ते नहीं लगते हैं.

सबसे पहले पुलवामा का ही मुद्दा लें. सत्यपाल मलिक, जिन्हें मोदी निजाम ने खुद छांटकर और जम्मू-कश्मीर के लिए अपना सबसे उपयुक्त प्रतिनिधि मानकर,

इस संवेदनशील सीमावर्ती राज्य का राज्यपाल बनाकर भेजा था. जाहिर है कि इस आम तौर पर स्वीकार की जा चुकी सचाई को एक बार फिर रेखांकित किया है कि

यह त्रासदी, जिसमें CRPF के काफिले पर कार-बम से किए गए आतंकी आत्मघाती हमले में, सीआरपीएफ के 40 जवान मारे गए थे.

इस आतंकवाद-प्रभावित क्षेत्र में, सुरक्षा बलों के इतने विशाल काफिले को, गाडिय़ों से सडक़ मार्ग से ले जाए जाने का ही नतीजा था.

यानी अगर करीब 2,500 जवानों का, अस्सी से ज्यादा वाहनों का विशाल काफिला, सडक़ मार्ग से नहीं भेजा जा रहा होता, जबकि ऐसा काफिला अपने आप में अभूतपूर्व ही था

तो चालीस जवानों की अकारण शहादत की इस त्रासदी से बचा जा सकता था. वास्तव में सीआरपीएफ द्वारा बाद में करायी गयी इस पूरे प्रकरण की जांच में भी, इसी सचाई को रेखांकित किया गया है.

पूर्व-सेना अध्यक्ष, जनरल शंकर रायचौधुरी ने भी टेलीग्राफ से एक बातचीत में यह रेखांकित किया है कि सडक़ मार्ग से रक्षा बलों के इतने विशाल काफिले को भेजा जाना,

अपने आप में वह घातक गलती थी, जो इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार थी. तत्कालीन राज्यपाल मलिक, जिन्हें साफ तौर पर इस सब के संबंध में अंधेरे में ही रखा गया था,

प्रामाणिक रूप से इस त्रासदी के घट जाने के बाद हासिल हुई यह जानकारी देते हैं कि सीआरफएफ ने अपने जवानों को हवाई मार्ग से ले जाने का अनुरोध किया था.

इसके लिए पांच हवाई जहाजों की जरूरत होती लेकिन, गृहमंत्रालय ने जिसकी कमान उस समय राजनाथ सिंह के हाथों में थी, सीआरपीएफ की इस मांग को खारिज कर दिया था.

इसके साथ ही मलिक, दो-टूक शब्दों में यह कहकर कि अगर यह मांग राज्यपाल के रूप में उनके सामने आयी होती, तो उन्होंने जरूर कुछ-न-कुछ कर के

उनकी यह मांग पूरी कर दी होती, कम-से-कम इतना तो साफ कर ही देते हैं कि जवानों के इस काफिले को हवाई मार्ग से ले जाने की मांग,

कोई ऐसी मांग नहीं थी, जिसे साधनों की किसी वास्तविक सीमा के चलते, पूरा किया ही नहीं जा सकता था. पुन: यह दोहरा दें कि सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए,

जवानों की इस बड़ी संख्या को हवाई मार्ग से ले जाने की मांग तथा उसके खारिज किए जाने के तथ्य, घटना के फौरन बाद के दौर में भी सामने आए थे.

बहरहाल, तत्कालीन राज्यपाल ने इस मांग को खारिज करने के निर्णय और इसके जरिए, सीआरपीएफ को इतना बड़ा काफिला सडक़ मार्ग से ले जाने के लिए मजबूर करने के निर्णय

की जिम्मेदारी और इस तरह पुलवामा में हुई चालीस वर्दीधारी जवानों की मौतों के पीछे शासन की लापरवाही के दबा दिए गए सवाल को, फिर से उकेर कर सामने ला खड़ा किया है.

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