बेशक, आरक्षण के बांटे जाने का यह दावा भी कोई कम बेतुका नहीं था। सभी जानते हैं कि जहां तक दलितों तथा आदिवासियों के आरक्षण का सवाल है,
उसका आधार संवैधानिक है और उसे बिना संविधान बदले कोई नहीं बदल सकता है और संविधान बदलने के इरादों का आरोप खुद संघ-भाजपा पर है.
दूसरी ओर अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में जरूर राज्यों के लिए कुछ लचीलापन रहा है और इस श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को जगह दिए जाने के कुछ दक्षिणी राज्यों के उदाहरण को ही,
मोदी एंड कंपनी अपनी सांप्रदायिक दलील बनाती रही है, वह भी बहुत अवसरवादी तरीके से. कर्नाटक में भाजपा की पिछली सरकार के लगभग पूरे कार्यकाल में,
पिछड़ों के आरक्षण में मुस्लिम पिछड़ी जातियों की भागीदारी की तीन दशक पुरानी व्यवस्था बिना किसी विवाद के चलती रही थी.
लेकिन, चुनाव से ऐन पहले भाजपा की सरकार ने इस पर विवाद खड़ा करते हुए, मुस्लिम पिछड़ों का 4 फीसद आरक्षण खत्म कर दिया और यह हिस्सा प्रभुत्वशाली जातियों में बांटने का ऐलान कर दिया.
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस मनमानी पर कड़ाई से रोक लगा दी और विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में आई कांग्रेस सरकार ने, पुरानी व्यवस्था को बहाल कर दिया.
पुरानी व्यवस्था की इसी बहाली को प्रधानमंत्री चीख-चीखकर पिछड़ों का आरक्षण छीनने की इंडिया गठबंधन की साजिश का सबूत बता रहे थे.
इस दावे में भी मौकापरस्ती इतनी थी कि बिहार में, जहां कर्पूरी ठाकुर के समय में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की शुरूआत से ही मुस्लिम पिछड़ी जातियां आरक्षण में शामिल रही हैं,
नीतीश कुमार के साथ गठजोड़ में शामिल भाजपा इस पर आपत्ति करने की स्थिति में नहीं है। इसी प्रकार, आंध्र प्रदेश में भाजपा के साथ नयी-नयी फिर से गठबंधन में
आई तेलुगू देशम् पार्टी इसी सब के बीच, मुस्लिम पिछड़ों के आरक्षण की हिफाजत करने के ऐलान कर रही थी, लेकिन भाजपा वहां भी इस मुद्दे पर चुप लगाए बैठी थी
यहां तक कि खुद मोदी ने चुनाव प्रचार से पहले एक साक्षात्कार में यह दावा किया था कि गुजरात में उनके राज में अठारह मुस्लिम जातियां अन्य पिछड़ा वर्ग के लाभ पाने वालों में शामिल रही थीं.
फिर भी खासतौर पर दक्षिण के बाहर, देश के बड़े हिस्से में अपने चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री, यही खतरा दिखाकर हिंदुओं को अपने झंडे के नीचे जमा करने की कोशिश कर रहे थे.
और भी बड़ी विडंबना यह कि चुनाव के आखिरी चरणों तक आते-आते प्रधानमंत्री मोदी ने एक झूठा दावा पेश करना शुरू कर दिया, जिसे उन्होंने अपने दर्जनों छद्म इंटरव्यू में दोहराया भी है.
कहा जा रहा है कि मुसलमानों के आरक्षण का भाजपा का विरोध सैद्घांतिक है. सिद्घांत यह है कि भारत का संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता है.
मुसलमानों को आरक्षण मिलना, धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जाना है और यह भाजपा को मंजूर नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी अपनी चुनाव सभाओं में अब एक यही गारंटी देते हैं
-जब तक मोदी जिंदा है, आपका आरक्षण किसी को छूने नहीं देगा; धर्म के आधार पर आरक्षण मिलने नहीं देगा! लेकिन, क्या मोदी एंड कंपनी ही नहीं है,
जो पिछड़ों के आरक्षण से पिछड़ी मुस्लिम जातियों को बाहर रखे जाने के अपने आग्रह के जरिए, इस आरक्षण को धार्मिक आधार पर आरक्षण में तब्दील करने पर तुली हुई है.
हां! अगर कोई सांप्रदायिकता के नशे में इतना अंधा हो जाए, तो बात दूसरी है कि उसे यह भी नहीं दिखाई दे कि किसी आरक्षण को हिंदुओं तक सीमित कर देना भी,
उसे सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण बना देगा. सच तो यह है कि सिर्फ पिछड़ों के आरक्षण के मामले में ही नहीं, दलितों तथा आदिवासियों के आरक्षण के मामले में भी
संघ-भाजपा की बुनियादी नीति, आरक्षण को हिंदुओं तक सीमित कर, धर्म पर आधारित बनाने की ही रही है. यह कोई संयोग ही नहीं है कि संघ-भाजपा न सिर्फ
दलित मुसलमानों-ईसाइयों को आरक्षण का लाभ दिए जाने का हमेशा से विरोध करते आए हैं, आदिवासियों के मामले में भी उन्होंने खासतौर पर
दलित आदिवासियों को आदिवासी माने जाने के खिलाफ ही अपनी मुहिम तेज कर दी है. सच तो यह है कि मणिपुर के हालात बिगाड़ने में भी,
संघ परिवार की ऐसी ईसाई-आदिवासी विरोधी मुहिम का ही बड़ा हाथ है. वहां मुद्दा आरक्षण से बढ़कर, ईसाई आदिवासियों की जमीनों को हासिल विशेष सुरक्षाओं का है.
इस तरह, आरक्षण के प्रावधानों के साथ सांप्रदायिक आधार नत्थी करने वाले ही, इसका शोर मचा रहे हैं कि इंडिया गठबंधन सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण दे देगा.
रही बात किसी का आरक्षण छीनकर किसी को देने की, तो विपक्ष आम तौर पर जातिगत जनगणना व आर्थिक-सामाजिक सर्वे द्वारा, जिनसे संघ परिवार को बहुत डर लगता है,
विभिन्न तबकों की वास्तविक स्थिति का आकलन किए जाने और आबादी में पिछड़ों के हिस्से को, उनकी हिस्सेदारी का आधार बनाने की मांग करता है.
यह कोई संयोग ही नहीं है कि बिहार में ऐसे सर्वे के बाद, तत्कालीन महागठबंधन सरकार ने कुल आरक्षण बढ़ाने के जरिए, पिछड़ों के हिस्से में जरूरी बढ़ोतरी करने का प्रस्ताव किया था.
वैसे भाजपा भी खुलकर इसका विरोध नहीं कर पाई थी. सामाजिक न्याय के एजेंडा के एक आवश्यक हिस्से के तौर पर विपक्ष की यह भी मांग रही है कि आरक्षण की सीमा 50 फीसद से बढ़ायी जानी चाहिए.
वैसे आरक्षण के दायरे से बाहर, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 फीसद आरक्षण की व्यवस्था के लागू होने के बाद से तो, पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई
50 फीसद की अधिकतम सीमा टूट चुकी है. और दक्षिण भारत के राज्यों में तो यह सीमा पहले भी लागू नहीं हो रही थी.
बहरहाल, वास्तव में अगर दलितों व आदिवासियों समेत, सारे आरक्षण अगर किसी ने सबसे ज्यादा छीने हैं, तो मोदीराज के दस वर्षों ने ही, नौकरियां खत्म कर के और सार्वजनिक सेवाओं व उद्यमों का अंधाधुंध निजीकरण करने के जरिए छीने हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं)