समाज, नैतिकता और व्यभिचार का अपराध

BYSHUBHAM VERMA

बीते कुछ दिन भारतीय कानून व्यवस्था के इतिहास में वो स्वर्णिम दिन हैं जिन्हे हमेशा याद रखा जायेगा। इन
दिनों में भारत के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गए कुछ निर्णयों का प्रभाव इस देश की सामाजिक स्थिति को
बदलने में एक अग्रणी भूमिका निभाने वाला है, ऐसी हम आशा करते हैं। बात चाहे धारा 377 को असंवैधानिक
करार करने की हो, आधार पर आये निर्णय की हो या फिर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 को
असंवैधानिक घोषित करना हो।

यह लेख सर्वोच्च न्यायलय द्वारा धारा 497 पर दिए गए निर्णय की विवेचना हेतु लिखा गया है कि इस निर्णय
के क्या प्रभाव भारतीय समाज पर होंगे और इस निर्णय से किन उद्देश्यों की पूर्ति की जा सकती है। इस निर्णय के
शुरू में ही प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा कहते हैं, “भारतीय संविधान की सबसे खूबसूरत बात ये है
कि यह मैं ,आप और हम को आत्मसात करती है।” सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भी इसी धारणा को केंद्र में रख कर दिया गया है।

प्रधान न्यायधीश दीपक मिश्र समेत पांच जजों (जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस
डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदू मल्होत्रा) की संवैधानिक पीठ ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 को यह
कहते हुए कि यह धारा महिलाओं को पति की संपत्ति मानती है, जो कि समानता के अधिकार के विरुद्ध है, एक
सम्मति से असंवैधानिक करार दिया।
क्या है धारा 497 ?

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 यह बताती है कि यदि कोई व्यक्ति किसी शादीशुदा स्त्री से उसके पति की
अनुमति के बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाता है, तो वह व्यक्ति व्यभिचार के अपराध का दोषी होगा। विचारणीय
बिंदु यह है कि इस धारा का लाभ सिर्फ पति को मिल सकता है और सिर्फ पति ही उस व्यक्ति के विरुद्ध
व्यभिचार का मुकदमा दायर कर सकता है, जिसके साथ उसकी पत्नी ने शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किये हैं।
धारा 497  का गहन विश्लेषण करने पर हमें तीन मुख्य बिंदु पता चलते हैं ।

1. धारा 497  सिर्फ पति को व्यभिचार का मुकदमा दाखिल करने का अधिकार देती है उस व्यक्ति के खिलाफ
जिसने उसकी पत्नी के साथ बिना उसकी अनुमति के शारीरिक संबंध स्थापित किये हैं। परन्तु यदि पति ऐसा

करता है तो यह धारा पत्नी को ऐसा कोई भी अधिकार नहीं देती है, उस स्त्री के विरुद्ध व्यभिचार का
मुकदमा लाने के लिए।

2. यह धारा पत्नी को अपने पति के विरुद्ध भी व्यभिचार का मुकदमा लाने का अधिकार नहीं देती है यदि
उसका पति किसी ऐसे कार्य का दोषी हो।

3. यह धारा उन मामलों में भी लागू नहीं होती जिनमें पति द्वारा किसी अविवाहित स्त्री के साथ शारीरिक
सम्बन्ध स्थापित किये गए हों।

उपरोक्त बिंदुओं के अध्ययन से हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि इस धारा के साथ समस्या क्या थी
और क्यों बार-बार इस धारा को चुनौती दी जाती रही है।

यदि हम अन्य देशों में व्यभिचार के अपराध की बात करें तो लगभग सभी देशों में ही इसे घोर अपराध की
श्रेणी में रखा गया है लेकिन इसके साथ ही स्त्री और पुरुष के मामले में कोई भेदभाव नहीं रखा गया है। यूरोपीय
देशों की बात करें तो फ्रांस में पत्नी को व्यभिचार का दोषी पाए जाने पर तीन माह से दो साल तक की सजा का
प्रावधान है, जर्मनी में यदि विवाह विच्छेदन का कारण व्यभिचार है तो पति पत्नी में से जो भी दोषी हो तथा
जिसके साथ सम्बन्ध बनाये गए हों दोनों को ६ माह की सजा का प्रावधान है, इसी प्रकार से कोरियन दण्ड
संहिता, 1953 के अनुच्छेद 241 के अनुसार व्यभिचार के दोषी दोनों पति और पत्नी हो सकते हैं।

ऐतिहासिक पहलू 

वास्तव में लार्ड मैकॉले की अध्यक्षता में गठित प्रथम लॉ कमीशन में व्यभिचार के अपराध को भारतीय दण्ड
संहिता में जगह नहीं मिली थी और इसे सिर्फ एक सिविल रॉंग की श्रेणी में रखा गया था। किन्तु वर्ष 1860 में
सर जॉन रोमिली की अध्यक्षता में गठित द्वितीय लॉ कमीशन ने इसे आपराधिक दर्जा प्रदान कर दिया। परन्तु
उस वक़्त की महिलाओं की दशाओं को देखते हुए, जो की बाल विवाह, बहुविवाह, और पति पत्नी के उम्र के
असामान्य अंतर जैसी वजहों से बहुत दयनीय थी, इस अपराध की श्रेणी से अलग रखा।

स्वतंत्रता पश्चात् पहली बार वर्ष 1954 में यूसुफ अब्दुल अज़ीज़ के मामले में इस धारा को चुनौती दी गयी।
इस मुक़दमे का फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 15(3)  लिंग के आधार
पर किये गए वर्गीकरण को उचित मानता है, यदि राज्य इसका उपयोग करके महिलाओं और बच्चों के हित के
लिए कोई प्रावधान लाता है। अतः धारा 497  संवैधानिक है। वर्ष 1985 में पुनः इस धारा को सौमित्रि विष्णु बनाम भारत संघ के मामले में चुनौती दी गयी। इस मामले में भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने यथावत स्थिति बरक़रार रखते हुए धारा 497 को संवैधानिक करार दिया ।

वर्तमान निर्णय
वर्तमान में जोसफ शाइन बनाम भारत संघ के मामले में इस धारा की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी जिसका
निर्णय देते हुए पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने इस धारा को सर्वसम्मत से असंवैधानिक करार दिया है। प्रधान
न्यायाधीश दीपक मिश्र के अनुसार पति ना तो पत्नी के ऊपर किसी प्रकार का मालिकाना हक़ रखता है और ना
ही वह किसी प्रकार की न्यायिक सम्प्रभुता पत्नी पर धारण करता है। उन्होंने कहा “जो भी व्यवस्था स्त्री के
आत्मसम्मान की अवहेलना करती है वह भारतीय संविधान के रोष को आमंत्रित करती है।”
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने पिता के निर्णय (सौमित्रि विष्णु बनाम भारत संघ) को रद्द करते हुए धारा
497  को विक्टोरियन नैतिकता का अवशेष बताया और कहा कि यह धारा स्त्री को चल संपत्ति बताने वाली
धारणा को अग्रसारित है। जस्टिस नरीमन ने इस धारा को अनुच्छेद 14 एवं 15 के विरुद्ध माना क्यूंकि यह
धारा के लिंग आधार पर सिर्फ पुरुषों को दण्डित करती है। उन्होंने कहा कि जैसे यह धारा पुरुष को प्रलोभक
और स्त्री को पीड़िता दर्शाती है, यह अत्यंत प्राचीन विचारधारा है और इसका वर्तमान समय की वास्तिवकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने धारा 497 को विसंगतियों और अयोग्यताओं से परिपूर्ण बताते
हुए इसे असंवैधानिक करार दिया।

निष्कर्ष

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही धारा 497  को असंवैधानिक करार दिया हो, लेकिन इसका मतलब सिर्फ
इस बात से है कि अब व्यभिचार एक आपराधिक कृत्य नहीं है। इसके अतिरिक्त यह अब भी विवाह विच्छेदन के
लिए एक आधार है, जिस पर आधारित विवाह विच्छेदन न्यायालयों द्वारा किये जा सकते हैं। मेरे विचार में
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय इस दिशा में एक और कदम है कि विवाहिक मामलों में आपराधिक कानून का
दखल कम से कम होना चाहिए।
भारतीय समाज में स्त्री को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की ओर यह एक और प्रभावशाली कदम है और
भारतीय समाज को इस निर्णय का करबद्ध तरीके से स्वागत करना चाहिए। क्यूँकि किसी भी सभ्य समाज में दो
वयस्कों द्वारा सम्मति से बनाये गए सम्बन्ध को आप एक बार नैतिकता के तराजू पर तो तौल सकते हो परन्तु
उसे एक दंडनीय अपराध घोषित करना एक बहुत ही पिछड़ी और छिछली सोच को दर्शाता है।

 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) लेखक  डा. राम मनोहर  लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय लखनऊ के  छात्र हैं  तथा इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यवहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति ‘द फायर ‘ उत्तरदाई नहीं है। इस आलेख में लेखक के विचारों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।

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