सूरत: में जो हादसा हुआ है, वह किसी भी सभ्य समाज और परिपक्व लोकतंत्र पर एक बदसूरत धब्बा है इसलिए यह सिर्फ सूरत का हादसा नहीं है.
जैसा कि अब तक लगभग सब जान चुके हैं कि इस संसदीय क्षेत्र के चुनाव अधिकारी, जो आम तौर से कलेक्टर होता है, ने 18वीं लोकसभा के लिए होने वाले
चुनाव में सूरत संसदीय क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार मुकेश दलाल को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया है.
यह काम जिस तरह से किया गया है, वह ‘इंडिया दैट इज भारत’ के लोकतंत्र के एक खतरनाक स्थिति में पहुँच जाने का संकेत देता है.
दोहराने में हर्ज नहीं कि निर्विरोध निर्वाचन के लिए जरूरी होता है कि सिर्फ एक प्रत्याशी बचे–उसके सामने कोई न हो, अब ऐसा अपने आप तो होने से रहा.
लिहाजा सबसे पहले तो उनके विरुद्ध इंडिया गठबंधन के साझे उम्मीदवार, कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुम्भानी और उनके डमी उम्मीदवार सुरेश पाडसाला का
नामांकन रद्द “करवाया” गया, उसके बाद बाकी बसपा और 3 छोटी पार्टियों, जिनमें सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम पर बनी पार्टी भी शामिल थी,
के उम्मीदवारों को “बिठवाया” गया और इस तरह भाजपा के मुकेश भाई दलाल को “जितवाया” गया. यह सब “करवाया, बिठवाया और जितवाया गया”
जैसे क्रियापदों का इस्तेमाल करने की वजह समझनी है, तो इसकी पूरी क्रोनोलोजी देखनी होगी. संक्षेप में यह इस प्रकार है:
इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार और उनके डमी प्रत्याशी ने अपने नामांकन दाखिल किये. जब उनकी जांच का समय आया, तो पता चला कि उन दोनों के ही प्रस्तावक
सिर्फ “गायब” ही नहीं हो चुके हैं, बल्कि उन चारों प्रस्तावकों के शपथ पत्र भाजपा उम्मीदवार की तरफ से निर्वाचन अधिकारी को भी प्रस्तुत कराये जा चुके हैं,
जिनमें उन्होंने दावा किया है कि प्रस्तावक के रूप में किये गए हस्ताक्षर उनके नहीं हैं. इस आधार पर कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुम्भानी और उनके वैकल्पिक प्रत्याशी सुरेश पाडसाला के नामांकन खारिज कर दिए गए.
इन दोनों की तरफ से दर्ज कराई गयी आपत्ति भी फ़ौरन निरस्त कर दी गयी. अब भाजपा के सामने बाकी बचे 8 उम्मीदवार, जिनमें से एक बसपा के प्यारेलाल भारती भी थे.
कांग्रेस प्रत्याशी का नामांकन अस्वीकार किये जाने की खबर मिलते ही इंडिया गठबंधन की तरफ से तुरंत बीएसपी प्रत्याशी के समर्थन की घोषणा कर दी गयी.
आम आदमी पार्टी ने इसका सार्वजनिक एलान भी कर दिया. दबाव, गुंडई और खरीद-फरोख्त की आशंका को देखते हुए बसपा ने तुरंत अपने प्रत्याशी को भूमिगत करके वडोदरा में एक जगह पहुंचा दिया.
सुबह 4 बजे बसपा उम्मीदवार ने बताया कि वे जहां छुपे हुए हैं, उस जगह को कई लोगों ने घेरा हुआ है. बसपा के प्रदेश अध्यक्ष के अनुसार,
उन्होंने फ़ौरन इसकी जानकारी जिला निर्वाचन अधिकारी सहित पुलिस और प्रशासन को दी. मगर अंतत: नाम वापसी का समय खत्म होने से
ठीक पहले प्यारेलाल भारती को घेर-घार कर ले आया गया और उनकी भी चुनाव वापसी करवा दी गयी. अब बाकी बचे 7, जिनमें लोग पार्टी के शोएब शेख,
सरदार वल्लभ भाई पटेल पार्टी के अब्दुल हमीद खान, ग्लोबल रिपब्लिकन पार्टी के जयेश मेवाड़ा और तीन निर्दलीय भारत प्रजापति, अजीत उमट और बरैया रमेश;
समय निकलने के पहले उनकी भी वापसी करवा दी गयी और इस तरह सूरत यह बनी कि बिना मतपत्र छपे ही मोदी-अमित शाह के गुजरात के सूरत को सांसद के रूप में कोई एक दलाल में मिल गया.
यह जो हुआ है, वह कैसे हुआ होगा, इसका पक्का अनुमान लगाने के लिए राकेट साईंस का ज्ञाता होने की आवश्यकता नहीं है.
कांग्रेस प्रत्याशी के प्रस्तावकों को घेर-घार कर, ईडी-वीडी की बजाय मोहल्ले के पुलिसिये से ही उनको धमकवा कर, गली-मुहल्लों के गुंडों से आँखें दिखवाकर पहले उन्हें कमजोर बनाया होगा,
फिर उनका दाम लगाया होगा और इस तरह से डील पक्की हुई होगी. बाद में फिर बीएसपी के उम्मीदवार के साथ यही हुआ–रहे सहे जो नाममात्र की
पार्टियों वाले और निर्दलीय थे, क्या पता, उनमें से कई इसी कुनबे ने वोट काटने के लिए खड़े करवाए हों, उन्हें वापस कराना मुश्किल नहीं था.
जो इनके नहीं भी रहे होंगे, उन्हें “समझाने” के लिए किसी छुटभैय्ये का फोन और चिल्लर भर खैरात काफी रही होगी.
‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ कहे जाने वाले देश के लिए यह सचमुच अशुभ और अशोभनीय दोनों है. पहले इस तरह के छल, धनबल, बाहुबल की प्रपंची कारगुजारियां
पंची और सरपंची के चुनाव में आजमाई जाती थीं, कालेजों के छात्र संघ चुनावों और सहकारिताओं में अपनाई जाती थीं, इन दिनों वहां भी ये पहले की तुलना में कम हुई हैं.
लोकसभा चुनाव में तो इस तरह की जाहिर उजागर निर्लज्जता का पहला उदाहरण हैं. मगर यह सिर्फ सूरत की बात नहीं है.
भारतीय प्रायद्वीप के नामचीन शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी साहब ने एक शेर में कहा है कि: “जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का/ इबारत देख कर जिस तरह मा’नी जान लेते हैं.“
इस तर्ज पर कहें तो सूरत में जो हुआ, वह इस देश के लोकतंत्र की आज की जो सीरत है, उसका उदाहरण है. पिछले 10 वर्षों से इस देश में संविधान और संविधान सम्मत
संस्थाओं के साथ जो हो रहा है, उसका भयावह और विद्रूप संस्करण हैं. यह कॉरपोरेटी हिन्दुत्व द्वारा मोदी राज की दो पंचवर्षीय अवधि में तैयार किया गया आगामी भारत का साँचा है.
अगर इनकी चली और इसी तरह चली, तो सूरत आने वाले दिनों की सीरत की बानगी भी है. यह इन 10 वर्षों में जिन कारपोरेट घरानों के लिए छप्परफाड़ मुनाफे कमवाये गए हैं,
उनकी छीजन के सहारे तंत्र पर कब्जा करके लोक से अपना जन प्रतिनिधि चुनने के जनता के मूलभूत अधिकार का अपहरण है.
अब तक जनादेश चुराने, चुनी-चुनाई सरकारों को अगवा कर भगवा बनाने, सांसदों, विधायकों, गुटों, समूहों, दलों को ईडी, सीबीआई से डरा कर,
लालच प्रलोभन से लुभाकर खरीदे जाने की कार्यनीति अपनाई जा रही थी–अब उस आड़ को भी छोड़ दिया गया है; थैलियों और नौकरशाहों की दम पर सीधे सांसदी ही अपहृत की जा रही है.
लूट की तलछट के एक रूप इलेक्टोरल बांड में इकट्ठा किया हजारों करोड़ रुपया इसी तरह के दलदल पैदा कर सकता है.
इस दलदल तक बहला फुसला कर लाने के सारे प्रबंध पहले ही किये जा चुके हैं. केन्द्रीय निर्वाचन आयोग से लेकर नीचे तक अपने बंदे बिठाए जा चुके हैं,
इस तरह की खबरें जिस तरह से पहुंचनी चाहिए, उस तरह से न पहुंचे, इस के प्रबंध गोदी मीडिया को पालतू बनाकर पहले ही किये जा चुका है.
किसी गोदी टीवी चैनल ने इस खबर के अंदर की खबर नहीं ढूंढी, अभी तक जितने अखबार देखे हैं, उनमें से किसी में भी लोकतंत्र को धर-दबोच कर हलाल किये जाने के इस कारनामे पर संपादकीय नहीं लिखा.
किसी शिकायत पर कें चु आ ने संज्ञान नहीं लिया. हाँ, इससे उलटा जरूर हुआ है, नफ़रतियों की आई टी सैल ने इसे अबकी बार, 400 पार की यात्रा का
पहला मुंडाभिषेक बताते हुए अपना शृंगाल-रोदन शुरू कर दिया है. उनमें से कुछ तो ऐसा होने की वजह से उम्मीदवारों का खर्चा बचने,
कर्मचारियों के चुनाव ड्यूटी की व्याधा से बचने और चुनाव में खर्च होने वाला सरकारी पैसा बचने का महात्म्य समझाने में जुट भी गए हैं.
सूरत ने बता दिया है कि सता-संरक्षित, कॉरपोरेट आश्रित ठुल्लों और गली-मुहल्लों के शोहदों के चंगुल में लोकतंत्र का पहुंचा दिया जाना ही मोदी के ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का मॉडल है.
इससे पहले कि देर हो जाए, देश की लोकतंत्र हिमायती अवाम, संगठनों, दलों, व्यक्तियों को सूरत से बजे अलार्म की आवाज से खुद भी जागना होगा, बाकियों को भी जगाना होगा.
(लेखक पाक्षिक ‘लोक जतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)